शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

बजरंग बाण
भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग
अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।
हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।
जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला याने 108 पाठ करना है।
गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

बजरंग बाण ध्यान
श्रीरामअतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।
चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।
दोहा
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र
इस स्त्रोत्र का प्रयोग किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह-पीड़ा, देव-पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि को शमन करने के लिए किया जाता है ऐसा कौन सा कष्ट है जिसका शमन इससे नहीं हो सकता। जितने भी ऊपरी किये कराये के प्रयोग है इससे सभी शांत हो जाते है 
नमस्कार मन्त्रः- श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-काल्यै नमः।
।।पूर्व-पीठिका-महेश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, महा-विद्यां, सर्व-सिद्धि-प्रदायिकां। यस्याः विज्ञान-मात्रेण, शत्रु-वर्गाः लयं गताः।।
विपरीता महा-काली, सर्व-भूत-भयंकरी। यस्याः प्रसंग-मात्रेण, कम्पते च जगत्-त्रयम्।।
न च शान्ति-प्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि। देवताः प्रलयं यान्ति, किं पुनर्मानवादयः।।
पठनाद्धारणाद्देवि, सृष्टि-संहारको भवेत्। अभिचारादिकाः सर्वेया या साध्य-तमाः क्रियाः।।
स्मरेणन महा-काल्याः, नाशं जग्मुः सुरेश्वरि, सिद्धि-विद्या महा काली, परत्रेह च मोदते।।
सप्त-लक्ष-महा-विद्याः, गोपिताः परमेश्वरि, महा-काली महा-देवी, शंकरस्येष्ट-देवता।।
यस्याः प्रसाद-मात्रेण, पर-ब्रह्म महेश्वरः। कृत्रिमादि-विषघ्ना सा, प्रलयाग्नि-निवर्तिका।।
त्वद्-भक्त-दशंनाद् देवि, कम्पमानो महेश्वरः। यस्य निग्रह-मात्रेण, पृथिवी प्रलयं गता।।
दश-विद्याः सदा ज्ञाता, दश-द्वार-समाश्रिताः। प्राची-द्वारे भुवनेशी, दक्षिणे कालिका तथा।।
नाक्षत्री पश्चिमे द्वारे, उत्तरे भैरवी तथा। ऐशान्यां सततं देवि, प्रचण्ड-चण्डिका तथा।।
आग्नेय्यां बगला-देवी, रक्षः-कोणे मतंगिनी, धूमावती च वायव्वे, अध-ऊर्ध्वे च सुन्दरी।।
सम्मुखे षोडशी देवी, सदा जाग्रत्-स्वरुपिणी। वाम-भागे च देवेशि, महा-त्रिपुर-सुन्दरी।।
अंश-रुपेण देवेशि, सर्वाः देव्यः प्रतिष्ठिताः। महा-प्रत्यंगिरा सैव, विपरीता तथोदिता।।
महा-विष्णुर्यथा ज्ञातो, भुवनानां महेश्वरि। कर्ता पाता च संहर्ता, सत्यं सत्यं वदामि ते।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा देवी, महा-काली सुनिश्चिता। वेद-शास्त्र-प्रगुप्ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।
अनन्त-कोटि-सूर्याभा, सर्व-शत्रु-भयंकरी। ध्यान-ज्ञान-विहीना सा, वेदान्तामृत-वर्षिणी।।
सर्व-मन्त्र-मयी काली, निगमागम-कारिणी। निगमागम-कारी सा, महा-प्रलय-कारिणी।।‍
यस्या अंग-घर्म-लवा, सा गंगा परमोदिता। महा-काली नगेन्द्रस्था, विपरीता महोदयाः।।
यत्र-यत्र प्रत्यंगिरा, तत्र काली प्रतिष्ठिता। सदा स्मरण-मात्रेण, शत्रूणां निगमागमाः।।
नाशं जग्मुः नाशमायुः सत्यं सत्यं वदामि ते। पर-ब्रह्म महा-देवि, पूजनैरीश्वरो भवेत्।।
शिव-कोटि-समो योगी, विष्णु-कोटि-समः स्थिरः। सर्वैराराधिता सा वै, भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी।।
गुरु-मन्त्र-शतं जप्त्वा, श्वेत-सर्षपमानयेत्। दश-दिशो विकिरेत् तान्, सर्व-शत्रु-क्षयाप्तये।।
भक्त-रक्षां शत्रु-नाशं, सा करोति च तत्क्षणात्। ततस्तु पाठ-मात्रेण, शत्रुणां मारणं भवेत्।।
गुरु-मन्त्रः- “ॐ हूं स्फारय-स्फारय, मारय-मारय, शत्रु-वर्गान् नाशय-नाशय स्वाहा।”
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्र-माला-मन्त्रस्य श्रीमहा-काल-भैरव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवता, हूं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
शिरसि श्रीमहा-काल-भैरव ऋषये नमः। मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः। हृदि श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवतायै नमः। गुह्ये हूं बीजाय नमः। पादयोः ह्रीं शक्तये नमः। नाभौ क्लीं कीलकाय नमः। सर्वांगे मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।
कर-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कर-तल-द्वयोर्नमः।
हृदयादि-न्यासः-हूं ह्रीं क्लीं ॐ हृदयाय नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ नेत्र-त्रयाय वौषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।
।।मूल स्तोत्र-पाठ।।
ॐ नमो विपरीत-प्रत्यंगिरायै सहस्त्रानेक-कार्य-लोचनायै कोटि-विद्युज्जिह्वायै महा-व्याव्यापिन्यै संहार-रुपायै जन्म-शान्ति-कारिण्यै। मम स-परिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रून् स-दाराऽपत्यान् संहारय संहारय, महा-प्रभावं दर्शय दर्शय, हिलि हिलि, किलि किलि, मिलि मिलि, चिलि चिलि, भूरि भूरि, विद्युज्जिह्वे, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, ध्वंसय ध्वंसय, प्रध्वंसय प्रध्वंसय, ग्रासय ग्रासय, पिब पिब, नाशय नाशय, त्रासय त्रासय, वित्रासय वित्रासय, मारय मारय, विमारय विमारय, भ्रामय भ्रामय, विभ्रामय विभ्रामय, द्रावय द्रावय, विद्रावय विद्रावय हूं हूं फट् स्वाहा।।२४
हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं लं ह्रीं लं क्लीं लं ॐ लं फट् फट् स्वाहा। हूं लं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-नाग-गरुड़-किन्नर-विद्याधर-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-लोक-पालान् ग्रह-भूत-नर-लोकान् स-मन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणैः छिन्दि छिन्दि, भिन्धि भिन्धि, निकृन्तय निकृन्तय, छेदय छेदय, उच्चाटय उच्चाटय, मारय मारय, तेषां साहंकारादि-धर्मान् कीलय कीलय, घातय घातय, नाशय नाशय, विपरीत-प्रत्यंगिरे। स्फ्रें स्फ्रेंत्कारिणि। ॐ ॐ जं जं जं जं जं, ॐ ठः ठः ठः ठः ठः मम स-परिवारकस्य शत्रूणां सर्वाः विद्याः स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, हस्तौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, मुखं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, पादौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स-कुटुम्बानां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स्थानं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, सम्प्राणान् कीलय कीलय, नाशय नाशय, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, फट् फट् स्वाहा ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं।।२५
ऐं ह्रूं ह्रीं क्लीं हूं सों विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रूणामुच्चाटनं कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति, विपरीत-प्रत्यंगिरे, दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश-शक्ति-शूल-धनुः-शर-पाश-धारिणि, शत्रु-रुधिर-चर्म मेदो-मांसास्थि-मज्जा-शुक्र-मेहन्-वसा-वाक्-प्राण-मस्तक-हेत्वादि-भक्षिणि, पर-ब्रह्म-शिवे, ज्वाला-दायिनि, ज्वाला-मालिनि, शत्रुच्चाटन-मारण-क्षोभण-स्तम्भन-मोहन-द्रावण-जृम्भण-भ्रामण-रौद्रण-सन्तापन-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रान्तर्याग-पुरश्चरण-भूत-शुद्धि-पूजा-फल-परम-निर्वाण-हरण-कारिणि, कपाल-खट्वांग-परशु-धारिणि। मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रुन् स-सहायान् स-वाहनान् हन हन रण रण, दह दह, दम दम, धम धम, पच पच, मथ मथ, लंघय लंघय, खादय खादय, चर्वय चर्वय, व्यथय व्यथय, ज्वरय ज्वरय, मूकान् कुरु कुरु, ज्ञानं हर हर, हूं हूं फट् फट् स्वाहा।।२६
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य कृत मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-हवन-कृत्यौषध-विष-चूर्ण-शस्त्राद्यभिचार-सर्वोपद्रवादिकं येन कृतं, कारितं, कुरुते, करिष्यति, तान् सर्वान् हन हन, स्फारय स्फारय, सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२७
ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ अं विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति, करिष्यन्ति, शत्रुस्च, कारयामास, कारयिष्यन्ति, याऽ याऽन्यां कृत्यान् तैः सार्द्ध तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु, नाशय नाशय, मारय मारय, श्मशानस्थां कुरु कुरु, कृत्यादिकां क्रियां भावि-भूत-भवच्छत्रूणां यावत् कृत्यादिकां विपरीतां कुरु कुरु, तान् डाकिनी-मुखे हारय हारय, भीषय भीषय, त्रासय त्रासय, मारय मारय, परम-शमन-रुपेण हन हन, धर्मावच्छिन्न-निर्वाणं हर हर, तेषां इष्ट-देवानां शासय शासय, क्षोभय क्षोभय, प्राणादि-मनो-बुद्धयहंकार-क्षुत्-तृष्णाऽऽकर्षण-लयन-आवागमन-मरणादिकं नाशय नाशय, हूं हूं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ॐ फट् फट् स्वाहा।२८
क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२९
अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं। णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं। क्षं ऴं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मम स-परिवारकस्य स्थाने मम शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रार्चन-श्मशानारोहण-भूमि-स्थापन-भस्म-प्रक्षेपण-पुरश्चरण-होमाभिषेकादिकान् कृत्यान् दूरी कुरु कुरु, नाशं कुरु कुरु, हूं विपरीत-प्रत्यंगिरे। मां स-परिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।।३०
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। हूं ह्रीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य शत्रूणां विपरीतादि-क्रियां नाशय नाशय, त्रुटिं कुरु कुरु, तेषामिष्ट-देवतादि-विनाशं कुरु कुरु, सिद्धिं अपनयापनय, विपरीत-प्रत्यंगिरे, शत्रु-मर्दिनि। भयंकरि। नाना-कृत्यादि-मर्दिनि, ज्वालिनि, महा-घोर-तरे, त्रिभुवन-भयंकरि शत्रूणां मम स-परिवारकस्य चक्षुः-श्रोत्रादि-पादौं सवतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।३१ 
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वसुन्धरे। मम स-परिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३२
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महा-लक्ष्मि। मम स-परिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३३
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके। मम स-परिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३४
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे। मम स-परिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३५
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ इन्द्राणि। मम स-परिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३६
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि। मम स-परिवारकस्य बाहू रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३७
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि। मम स-परिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३८
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि। मम स-परिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३९
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि। मम स-परिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४०
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि। मम स-परिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४१
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्रह्माणि। मम स-परिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४२
हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य छिद्रं सर्व गात्राणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४३
सन्तापिनी संहारिणी, रौद्री च भ्रामिणी तथा।जृम्भिणी द्राविणी चैव, क्षोभिणि मोहिनी ततः।।
स्तम्भिनी चांडशरुपास्ताः, शत्रु-पक्षे नियोजिताः। प्रेरिता साधकेन्द्रेण, दुष्ट-शत्रु-प्रमर्दिकाः।।
ॐ सन्तापिनि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् सन्तापय सन्तापय हूं फट् स्वाहा।।४४
ॐ संहारिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा।।४५
ॐ रौद्रि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा।।४६
ॐ भ्रामिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा।।४७
ॐ जृम्भिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा।।४८
ॐ द्राविणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा।।४९
ॐ क्षोभिणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा।।५०
ॐ मोहिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा।।५१
ॐ स्तम्भिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय हूं फट् स्वाहा।।५२
।।फल-श्रुति।।
श्रृणोति य इमां विद्यां, श्रृणोति च सदाऽपि ताम्। यावत् कृत्यादि-शत्रूणां, तत्क्षणादेव नश्यति।।
मारणं शत्रु-वर्गाणां, रक्षणाय चात्म-परम्। आयुर्वृद्धिर्यशो-वृद्धिस्तेजो-वृद्धिस्तथैव च।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः, सर्व-सौख्यमवाप्नुयात्। वाय्वादीनामुपशमं, विषम-ज्वर-नाशनम्।।
पर-वित्त-हरा सा वै, पर-प्राण-हरा तथा। पर-क्षोभादिक-करा, तथा सम्पत्-करा शुभा।।
स्मृति-मात्रेण देवेशि। शत्रु-वर्गाः लयं गताः। इदं सत्यमिदं सत्यं, दुर्लभा देवतैरपि।।
शठाय पर-शिष्याय, न प्रकाश्या कदाचन। पुत्राय भक्ति-युक्ताय, स्व-शिष्याय तपस्विने।।
प्रदातव्या महा-विद्या, चात्म-वर्ग-प्रदायतः। विना ध्यानैर्विना जापैर्वना पूजा-विधानतः।।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्ष-सिद्धिः प्रजायते। पर-नारी-हरा विद्या, पर-रुप-हरा तथा।।
वायु-चन्द्र-स्तम्भ-करा, मैथुनानन्द-संयुता। त्रि-सन्ध्यमेक-सन्ध्यं वा, यः पठेद्भक्तितः सदा।।
सत्यं वदामि देवेशि। मम कोटि-समो भवेत्। क्रोधाद्देव-गणाः सर्वे, लयं यास्यन्ति निश्चितम्।।
किं पुनर्मानवा देवि। भूत-प्रेतादयो मृताः। विपरीत-समा विद्या, न भूता न भविष्यति।।
पठनान्ते पर-ब्रह्म-विद्यां स-भास्करां तथा। मातृकांपुटितं देवि, दशधा प्रजपेत् सुधीः।।
वेदादि-पुटिता देवि। मातृकाऽनन्त-रुपिणी। तया हि पुटितां विद्यां, प्रजपेत् साधकोत्तमः।।
मनो जित्वा जपेल्लोकं, भोग रोगं तथा यजेत्। दीनतां हीनतां जित्वा, कामिनी निर्वाण-पद्धतिम्।।
पर-ब्रह्म-विद्या-
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ, अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ। (१० वारं जपेत्)।।६६ से ७५
प्रार्थना-ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे। स-परिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु, मरण-भयमपनयापनय, त्रि-जगतां बल-रुप-वित्तायुर्मे स-परिवारकस्य देहि देहि, दापय दापय, साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि, विश्व-रुपे। धनं पुत्रान् देहि देहि, मां स-परिवारकं, मां पश्यन्तु। देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु, मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रूणां बल-बुद्धि-हानिं कुरु कुरु, तान् स-सहायान् सेष्ट-देवान् संहारय संहारय, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-लोकान् प्राणान् हर हर, हारय हारय, स्वाभिचारमपनयापनय, ब्रह्मास्त्रादीनि नाशय नाशय, हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठः ठः ठः फट् फट् स्वाहा।।
।।इति श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्रम्।।
विशेष ज्ञातव्यः-
शास्त्रों में प्रायः सभी महा-विद्याओं और अन्य देवताओं के ‘विपरीत-प्रत्यंगिरा मन्त्र-स्तोत्रादि’ मिलते हैं, किन्तु यह स्तोत्र उन सबकी चरम सीमा है। इसकी ‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। केवल करने की सामर्थ्य भर हो। किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह-पीड़ा, देव-पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि क्या है ऐसा, जिसका शमन इससे नहीं हो सकता। इसके साधक को ‘कृत्या’ देख भी नहीं सकती, अहित कर पाना तो आकाश-कुसुम है।
१॰ पूर्व-पीठिका के तेईस श्लोकों का पाठ करके, दस दाने सफेद सरसों (इसे ही पीली सरसों भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-सिद्धार्थ, राई, राजिका आदि।) लेकर गुरु-मन्त्र से १०० बार (१०८ बार नहीं) अभिमन्त्रित कर दशों दिशाओं में दस-दस दाना फेंक दें। फिर विनियोगादि आगे की क्रिया करके पाठ करें।
आप चाहें तो सरसों के दाने अधिक भी ले सकते हैं, किन्तु सभी दिशाओं में दाने समान संख्या में फेंके।
२॰ फल-श्रुति के अन्त में ‘पर-ब्रह्म-विद्या’ का १० बार जप करें। यदि अधिक संख्या में पाठ करें, तो ‘पर-ब्रह्म-विद्या’ का जप केवल प्रथम और अन्तिम पाठ में करें। बीच के पाठों में मात्र ‘स्तोत्र’ का पाठ होगा।
३॰ पुरश्चरण आवश्यक नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम होगा कि विधि-पूर्वक १००० पाठ कर लिए जाएँ। प्रयोग के लिए १०० पाठ पर्याप्त है, यदि आवश्यक हो तो अधिक करें।
५॰ पुरश्चरण और प्रयोग काल में नित्य शिवा-बलि अवश्य दें। कौल-साधक तत्त्वों से तथा पाशव-कल्पके साधक अनुकल्पों से बलि दें।

श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन


विनियोग – ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास- 
श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर न्यास – ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यास -ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।
ध्यान -
सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः,
शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।
आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा,
दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।
मानस पूजन – ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृ्यात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।
श्रीअर्जुन उवाच -
नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,
कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।
भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।
कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,
शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।
अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।
महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,
अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।
उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।
वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि,
जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।
त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।
स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।
स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।
स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा।
जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।
कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।
त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।
सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।
तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।
भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।।
।। फल-श्रुति ।।
यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः। 
यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।
न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः।
न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।
विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।
संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्।
आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥


॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुध-कौशिक ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । श्रीसीतारामचंद्रो देवता । सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि-न्यासः-
बुध-कौशिक ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छंदसे नमः मुखे । श्रीसीता-रामचंद्रो देवतायै नमः हृदि । सीता शक्तये नमः नाभौ । श्रीमद् हनुमान कीलकाय नमः पादयो ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥
॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानु-बाहुं धृत-शर-धनुषं बद्ध-पद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानं नव-कमल-दल-स्पर्धि-नेत्रं प्रसन्नम् ।
वामांकारूढ-सीता-मुख-कमल-मिलल्लोचनं नीरदाभम् ।
नानालंकार-दीप्तं दधतमुरु-जटामंडनं रामचंद्रम्॥
॥इति ध्यानम्॥
॥मूल-पाठ॥
चरितं रघुनाथस्य शत-कोटि प्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां, महापातकनाशनम् ॥ १॥
ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं, रामं राजीव-लोचनम् ।
जानकी-लक्ष्मणोपेतं, जटा-मुकुट-मण्डितम् ॥ २॥
सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्व-लीलया जगत्-त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥ ३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः, पापघ्नीं सर्व-कामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मख-त्राता, मुखं सौमित्रि-वत्सलः ॥ ५॥
जिह्वां विद्या-निधिः पातु, कण्ठं भरत-वंदितः ।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेश-कार्मुकः ॥ ६॥
करौ सीता-पतिः पातु, हृदयं जामदग्न्य-जित् ।
मध्यं पातु खर-ध्वंसी, नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु, सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु, रक्षः-कुल-विनाश-कृत् ॥ ८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु, जंघे दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषण-श्रीदः, पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ ९॥
एतां राम-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री, विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥
पाताल-भूतल-व्योम-चारिणश्छद्म-चारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तासे, रक्षितं राम-नामभिः ॥ ११॥
रामेति राम-भद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥
जगज्जैत्रैक-मन्त्रेण राम-नाम्नाऽभिरक्षितम् ।
यः कंठे धारयेत्-तस्य करस्थाः सर्व-सिद्धयः ॥ १३॥
वज्र-पंजर-नामेदं, यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र, लभते जय-मंगलम् ॥ १४॥
आदिष्ट-वान् यथा स्वप्ने राम-रक्षामिमां हरः ।
तथा लिखित-वान् प्रातः, प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥
आरामः कल्प-वृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रि-लोकानां, रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥
तरुणौ रूप-संपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुंडरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥
फल-मूलाशिनौ दान्तौ, तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८॥
शरण्यौ सर्व-सत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्व-धनुष्मताम् ।
रक्षः कुल-निहंतारौ, त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥
आत्त-सज्ज-धनुषाविशु-स्पृशावक्षयाशुग-निषंग-संगिनौ ।
रक्षणाय मम राम-लक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चाप-बाण-धरो युवा ।
गच्छन्मनोरथोऽस्माकं, रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥
रामो दाशरथिः शूरो, लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णा, कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥
वेदान्त-वेद्यो यज्ञेशः, पुराण-पुरुषोत्तमः ।
जानकी-वल्लभः श्रीमानप्रमेय-पराक्रमः ॥ २३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं, मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं, संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥
रामं दुर्वा-दल-श्यामं, पद्माक्षं पीत-वाससम् ।
स्तुवंति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेंद्रं सत्य-सन्धं दशरथ-तनयं श्यामलं शांत-मूर्तम् ।
वंदे लोकाभिरामं रघु-कुल-तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥
रामाय राम-भद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रण-कर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥
श्रीरामचंद्र-चरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्र-चरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य, वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघु-नंदनम् ॥ ३१॥
लोकाभिरामं रण-रंग-धीरम्, राजीव-नेत्रं रघु-वंश-नाथम् ।
कारुण्य-रूपं करुणाकरं तम्, श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धि-मतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यम्, श्रीराम-दूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविता-शाखां वंदे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥ ३४॥
आपदां अपहर्तारं, दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥
भर्जनं भव-बीजानां अर्जनं सुख-सम्पदाम् ।
तर्जनं यम-दूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥
रामो राज-मणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचर-चमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं पर-तरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् ।
रामे चित्त-लयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥
विशेष :- नवरात्र में नित्य नौ पाठ करने के बाद भगवान राम को नित्य एक कमल पूष्प चढ़ाने पर इस स्त्रोत्र कि सिद्धि हो जाती है उसके बाद इसका पाठ सभी बाधाओं से रक्षा करता है और बीमारियो से बचाता है ।  

सुख-शान्ति-दायक महा-लक्ष्मी महा-मन्त्र प्रयोग

सुख-शान्ति-दायक महा-लक्ष्मी महा-मन्त्र प्रयोग
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीपञ्च-दश-ऋचस्य श्री-सूक्तस्य श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषयः, अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दांसि, श्रीमहालक्ष्मी देवताः, श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषिभ्यो नमः शिरसि। अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः मुखे। श्रीमहालक्ष्मी देवताय नमः हृदि। श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ चन्द्रायै तर्जनीभ्यां स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै मध्यमाभ्यां वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै अनामिकाभ्यां हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै कर-तल-करपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै नमः हृदयाय नमः। ॐ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै नमः शिखायै वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै नमः कवचाय हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट्।
ध्यानः-
ॐ अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैर्भवतु-
भुवन-माता सततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी तत्त्वात्वकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ हं आकाश तत्त्वात्वकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ यं वायु तत्त्वात्वकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये घ्रापयामि नमः।
ॐ रं अग्नि तत्त्वात्वकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये दर्शयामि नमः।
ॐ वं जल तत्त्वात्वकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये निवेदयामि नमः।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
।।महा-मन्त्र।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।१
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।४
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्ति वृद्धिं ददातु मे।।७
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।८
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।९
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।११
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१३
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१४
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।१५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
।।स्तुति-पाठ।।
।।ॐ नमो नमः।।
पद्मानने पद्मिनि पद्म-हस्ते पद्म-प्रिये पद्म-दलायताक्षि।
विश्वे-प्रिये विष्णु-मनोनुकूले, त्वत्-पाद-पद्मं मयि सन्निधत्स्व।।
पद्मानने पद्म-उरु, पद्माक्षी पद्म-सम्भवे।
त्वन्मा भजस्व पद्माक्षि, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।
अश्व-दायि च गो-दायि, धनदायै महा-धने।
धनं मे जुषतां देवि, सर्व-कामांश्च देहि मे।।
पुत्र-पौत्र-धन-धान्यं, हस्त्यश्वादि-गवे रथम्।
प्रजानां भवति मातः, अयुष्मन्तं करोतु माम्।।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रा वृहस्पतिर्वरुणो धनमश्नुते।।
वैनतेय सोमं पिब, सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो, मह्मं ददातु सोमिनि।।
न क्रोधो न च मात्सर्यं, न लोभो नाशुभा मतीः।
भवन्ती कृत-पुण्यानां, भक्तानां श्री-सूक्तं जपेत्।।
विधिः-
उक्त महा-मन्त्र के तीन पाठ नित्य करे। ‘पाठ’ के बाद कमल के श्वेत फूल, तिल, मधु, घी, शक्कर, बेल-गूदा मिलाकर बेल की लकड़ी से नित्य १०८ बार हवन करे। ऐसा ६८ दिन करे। इससे मन-वाञ्छित धन प्राप्त होता है। 
हवन-मन्त्रः- “ॐ श्रीं ह्रीं महा-लक्ष्म्यै सर्वाभीष्ट सिद्धिदायै स्वाहा।”

कार्य सिद्धि यन्त्र


karya-sidhi-yantra-01
नवरात्र, होली, दीपावली, ग्रहणकाल या पुष्य नक्षत्र वाले दिन शुभ एवं अनुकूल मुहूर्त में ताम्रपत्र पर बने हुए यंत्र को पंचामृत से स्नान करवाकर शुद्ध कर लें। तत्पश्चात् यंत्र को शिवलिंग की जलहरी के नीचे इस तरह रखें कि शिवलिंग पर जल एवं दूध चढ़ाने के दौरान चढा हुआ जल व दूध इस यंत्र के ऊपर गिरता रहे। शिवलिंग पर जल व दूध चढ़ाते रहें तथा “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र को गहरी सांस से बोलते रहें। ऐसा प्रतिदिन १० मिनट तक करें। किसी महत्त्वपूर्ण कार्य पर प्रस्थान करते समय उक्त यंत्र को अपनी जेब में रखकर ले जावें। यह अत्यन्त प्रभावकारी क्रिया है अतः इसकी निरन्तरता बनाये रखने से शुभ परिणाम आते हैं।

सर्वदुःख निवारण यंत्र-मंत्र


32-sa-yantra
किसी शुभ रविवार के दिन भोजपत्र अथवा शुद्ध सादा कागज पर हल्दी के रस (घोल) की स्याही से अनार की कलम से इस यंत्र को तैयार कर पूजा-अर्चना करें। यंत्र के पीछे (दूसरी ओर) अपनी समस्या लिखें। यंत्र लिखित भोजपत्र को शुद्ध रुई में रखकर उसको बत्ती की तरह लपेट कर उसे जलायें। जब यंत्र की वह बत्ती जलने लगे तब उसे किसी चीज के सहारे टिका दें और निम्नलिखित मंत्र का हल्दी की माला (१०८ मनके) से ११ माला का जप करें यह प्रक्रिया लगातार सात रविवार तक करना लाभप्रद रहता है।
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं हंसः”

नींद में भय एवं खराब स्वप्न निवारण यंत्र


यदि किसी बच्चे या बड़े व्यक्ति को नींद में डर लगता हो या बेचेनी और घबराहट होति हो तो इस यंत्र का उपयोग लाभदायक रहता है। dream-fear-nivaran
यंत्र को मंगलवार या पुष्य नक्षत्र के दिन चौकोर भोजपत्र के ऊपर चमेली की कलम से अष्टगंधा की स्याही को प्रयुक्त करते हुए तैयार करें। कुल १०९ यंत्र बनावें जिसमें से १०८ यंत्रों को धूप-दीप से पूजाकर किसी बहती नदी या कुएं में विसर्जित कर दें। शेष बचे हुए एक यंत्र को पूजा स्थल पर रखें। अपनी लम्बाई का कच्चा सूत या मोली लेकर उसको पाँच बार मोड़कर बत्ती बनावें। दीपक में तिल का तेल भरकर इस बत्ती को रखें तथा यंत्र के सामने प्रज्जवलित करें। १०८ बार हनुमान अष्टक का पाठ करें तदुपरान्त भोजपत्र पर बने हुए यंत्र को तांबे के ताबीज में रखकर गले में धारण करें।

दीपावली पूजन विधि

दीपावली यानी धन और समृद्धि का त्यौहार. इस त्यौहार में गणेश और माता लक्ष्मी के साथ ही साथ धनाधिपति भगवान कुबेर, सरस्वती और काली माता की भी पूजा की जाती है. सरस्वती और काली भी माता लक्ष्मी के ही सात्विक और तामसिक रूप हैं. जब सरस्वती, लक्ष्मी और काली एक होती हैं तब महालक्ष्मी बन जाती हैं.
दिपावली की रात गणेश जी की पूजा से सद्बुद्धि और ज्ञान मिलता है जिससे व्यक्ति में धन कमाने की प्रेरणा आती है. व्यक्ति में इस बात की भी समझ बढ़ती है कि धन का सदुपयोग किस प्रकार करना चाहिए. माता लक्ष्मी अपनी पूजा से प्रसन्न होकर धन का वरदान देती हैं और धनधपति कुबेर धन संग्रह में सहायक होते हैं. इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही दीपावली की रात गणेश लक्ष्मी के साथ कुबेर की भी पूजा की जाती है. 

पूजन सामग्री 
- कलावा, रोली, सिंदूर, १ नारियल, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, 5 सुपारी, लौंग,  पान के पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत ( दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल), फल, बताशे, मिठाईयां, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी , अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, रूई, आरती की थाली. कुशा, रक्त चंदनद, श्रीखंड चंदन. 

पर्वोपचार 
पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर उस पर रंगोली बनाएं. चौकी के चारों कोने पर चार दीपक जलाएं. जिस स्थान पर गणेश एवं लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करनी हो वहां कुछ चावल रखें. इस स्थान पर क्रमश: गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति को रखें. अगर कुबेर, सरस्वती एवं काली माता की मूर्ति हो तो उसे भी रखें. लक्ष्मी माता की पूर्ण प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु की मूर्ति लक्ष्मी माता के बायीं ओर रखकर पूजा करनी चाहिए. 

आसन बिछाकर गणपति एवं लक्ष्मी की मूर्ति के सम्मुख बैठ जाएं. इसके बाद अपने आपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्धि करें 
 "ऊं अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥"
 इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें :-
ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ 
 फिर आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं,
शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए. अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें
 चन्‍दनस्‍य महत्‍पुण्‍यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्‍यम् लक्ष्‍मी तिष्‍ठतु सर्वदा।

दीपावली पूजन हेतु संकल्प 
पंचोपचार करने बाद संकल्प करना चाहिए. संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें :
 ऊं विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ऊं तत्सदद्य श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो ऽह्नि द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : २०७० , पराभव नाम संवत्सरे दक्षिणायने हेमन्त ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमावस तिथौ  रवि वासरे स्वाति नक्षत्रे आयुष्मान योग नाग करणादिसत्सुशुभे योग (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया– श्रुतिस्मृत्यो- क्तफलप्राप्तर्थं— निमित्त महागणपति नवग्रहप्रणव सहितं कुलदेवतानां पूजनसहितं स्थिर लक्ष्मी महालक्ष्मी देवी पूजन निमित्तं एतत्सर्वं शुभ-पूजोपचारविधि सम्पादयिष्ये.

गणपति पूजन 
किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है. इसलिए आपको भी सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा करनी चाहिए. हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें.
 गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
आवाहन: ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें.
 अर्घा में जल लेकर बोलें एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:.
 रक्त चंदन लगाएं: इदम रक्त चंदनम् लेपनम्  ऊं गं गणपतये नम:,
 इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं.
 इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं "इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:.
 दर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं.
 गणेश जी को वस्त्र पहनाएं. इदं रक्त वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि. 

पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें:
 इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:.
 मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:
 प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें. इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:
 इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:. 
अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम: 

इसी प्रकार से अन्य सभी देवताओं की पूजा करें. जिस देवता की पूजा करनी हो गणेश के स्थान पर उस देवता का नाम लें. 

कलश पूजन 
घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें. कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें. कलश के गले में मोली लपेटें.  नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें. हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें.
 ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि,
ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥) 

इसके बाद जिस प्रकार गणेश जी की पूजा की है उसी प्रकार वरूण देवता की पूजा करें. इसके बाद देवराज इन्द्र फिर कुबेर की पूजा करें. 

लक्ष्मी पूजन 
सबसे पहले माता लक्ष्मी का ध्यान करें
ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी।
गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।।
लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः।
नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।।

इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें. हाथ में अक्षत लेकर बोलें
 “ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” 
प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं:
 ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।।
 ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। 
इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं।
 ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं.
 अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं. 

लक्ष्मी देवी की अंग पूजा 
बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से थोड़ा-थोड़ा छोड़ते जायें—
 ऊं चपलायै नम: पादौ पूजयामि
 ऊं चंचलायै नम: जानूं पूजयामि,
 ऊं कमलायै नम: कटि पूजयामि,
 ऊं कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि,
 ऊं जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि,
 ऊं विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि,
 ऊं कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि,
 ऊं कमल पत्राक्ष्य नम: नेत्रत्रयं पूजयामि,
 ऊं श्रियै नम: शिरं: पूजयामि।

अष्टसिद्धि पूजा 
अंग पूजन की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें. ऊं अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, ऊं गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, ऊं प्राप्त्यै नम: ऊं प्राकाम्यै नम:, ऊं ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:। 

अष्टलक्ष्मी पूजन 
अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें. ऊं आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, ऊं सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, ऊं लक्ष्म्यै नम:, ऊं सत्य लक्ष्म्यै नम:, ऊं भोगलक्ष्म्यै नम:, ऊं  योग लक्ष्म्यै नम:

नैवैद्य अर्पण
पूजन के पश्चात देवी को
 "इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि" मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें.
 मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: "इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि" बालें.
 प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें. इदं आचमनयं ऊं महालक्ष्मियै नम:.
 इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि.
 अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:.

लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करनी चाहिए फिर गल्ले की पूजा करें. पूजन के पश्चात सपरिवार आरती और क्षमा प्रार्थना करें

क्षमा प्रार्थना 
न मंत्रं नोयंत्रं तदपिच नजाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपिच नजाने स्तुतिकथाः ।
नजाने मुद्रास्ते तदपिच नजाने विलपनं
परं जाने मातस्त्व दनुसरणं क्लेशहरणं                            

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्याच्युतिरभूत् ।
तदेतत् क्षंतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति                          

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः संति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोहं तव सुतः ।
मदीयो7यंत्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति                          

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापित्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदप कुमाता न भवति                          

परित्यक्तादेवा विविध सेवाकुलतया
मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि
इदानींचेन्मातः तव यदि कृपा
नापि भविता निरालंबो लंबोदर जननि कं यामि शरणं              

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ     
                    
चिताभस्म लेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कंठे भुजगपतहारी पशुपतिः
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदं                            

न मोक्षस्याकांक्षा भवविभव वांछापिचनमे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः
अतस्त्वां सुयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडाणी रुद्राणी शिवशिव भवानीति जपतः                          

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रूक्षचिंतन परैर्नकृतं वचोभिः
श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाधे
धत्से कृपामुचितमंब परं तवैव                                     

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि
नैतच्छदत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरंति                                         

जगदंब विचित्रमत्र किं
परिपूर्ण करुणास्ति चिन्मयि
अपराधपरंपरावृतं नहि माता
समुपेक्षते सुतं                                                      

मत्समः पातकी नास्ति
पापघ्नी त्वत्समा नहि
एवं ज्ञात्वा महादेवि
यथायोग्यं तथा कुरु