रविवार, 27 जुलाई 2014

तुम परफेक्ट हो जाओ

बाहर की वस्तु । न तो पकड़ने योग्य है । और न छोड़ने योग्य । बाहर की वस्तु । बाहर है । न तुम उसे पकड़ सकते हो । न तुम उसे छोड़ सकते हो । तुम हो कौन ? तुमने पकड़ा । वह तुम्हारी भ्रांति थी । तुम छोड़ रहे हो । यह तुम्हारी भ्रांति है । बाहर की वस्तु को न तुम्हारे पकड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । न तुम्हारे छोड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । तुम कल कहते थे । यह मकान मेरा है । मकान ने कभी नहीं कहा था कि - तुम मेरे मालिक हो । और मकान को अगर थोड़ा भी बोध होगा । तो वह हंसा होगा कि - खूब गजब के मालिक हो । क्योंकि तुमसे पहले कोई और यही कह रहा था । उससे पहले कोई और यही कह रहा था । और मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाद भी लोग होंगे । जो यही कहेंगे कि - वे मालिक हैं ।
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शहर में नौकरी कर रहे अपने लड़के का हालचाल देखने चौधरी गांव से आए । बड़े सवेरे पुत्रवधू ने पक्के गाने का अभ्यास शुरू किया । अत्यंत करुण स्वर में वह गा रही थी - पनियां भरन कैसे जाऊं ? पनियां भरन कैसे जाऊं ? शास्त्रीय संगीत तो शास्त्रीय संगीत है । उसमें तो 1 ही पंक्ति दोहराए चले जाओ - पनियां भरन कैसे जाऊं । आधे घंटे तक यही सुनते रहने के बाद बगल के कमरे से चौधरी उबल पड़े । और चिल्लाए - क्यों रे बचुआ । क्यों सता रहा है बहू को ? यहां शहर में पानी भरना क्या शोभा देगा उसे ? समझ तो अपनी अपनी है । मैं अपनी समझ से कहता हूँ । तुम अपनी समझ से समझते हो ।
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प्राणायाम सिर्फ गहरी स्वांस नहीं है । प्राणायाम बोधपूर्वक गहरी स्वांस है । इस फर्क को ठीक से समझ लें । बहुत से लोग प्राणायाम भी करते हैं । तो बोधपूर्वक नहीं । बस गहरी स्वांस लेते रहते हैं । अगर गहरी स्वांस ही आप सिर्फ लेंगे । तो अपान स्वस्थ हो जाएगा । बुरा नहीं है । अच्छा है । लेकिन ऊर्ध्वगति नहीं होगी । ऊर्ध्वगति तो तब होगी । जब स्वांस की गहराई के साथ आपकी अवेयरनेस, आपकी जागरूकता भीतर जुड़ जाए ।
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अगर आपको द्रष्टा का अनुभव होने लगे । दर्शन से आंख हटे । दृश्य से आंख हटे । और पीछे छिपे द्रष्टा से थोड़ा सा भी तालमेल बैठने लगे । तो परमात्मा को आप पाएंगे कि उससे ज्यादा समीप और कोई भी नहीं । अभी उससे ज्यादा दूर । और कोई भी नहीं है । अभी परमात्मा सिर्फ कोरा शब्द है । और जब भी हम सोचते हैं । तो ऐसा लगता है कि आकाश में कहीं बहुत दूर परमात्मा बैठा होगा । किसी सिंहासन पर । यात्रा लंबी मालूम पड़ती है । और परमात्मा यहां बैठा है । ठीक सासों के पीछे ।
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विचार 1 वस्तु है । उसका अपना स्वयं का अस्तित्व होता है । जब कोई आदमी मरता है । तो उसके सारे पागल विचार तुरंत निकल भागते हैं । और वे कहीं न कहीं शरण ढूंढना शुरू कर देते हैं । फौरन वे उनमें प्रवेश कर जाते हैं । जो आसपास होते हैं । वे कीटाणुओं की भांति होते हैं । उनका अपना जीवन है । कई बार अचानक एक उदासी तुम्हें जकड़ लेती है । 1 विचार गुजर रहा है । तुम तो बस रास्ते में हो । यह 1 दुर्घटना है । विचार 1 बादल की भांति गुजर रहा था । 1 उदास विचार किसी के द्वारा छोड़ा हुआ । यह 1 दुर्घटना है कि तुम पकड़ में आ गये हो ।
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मैं चाहता हूँ कि हम मूर्तियों से मुक्त हो सकें । ताकि जो अमूर्त है । उसके दर्शन संभव हों । रूप पर जो रुका है । वह अरूप पर नहीं पहुँच पाता है । और आकार जिसकी दृष्टि में है । वह निराकार सागर में कैसे कूदेगा ? और वह जो दूसरे की पूजा में है । वह अपने पर आ सके । यह कैसे संभव है ? मूर्ति को अग्नि दो । ताकि अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे । और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो । ताकि निराकार आकाश उपलब्ध हो सके । और रूप को बहने दो । ताकि नौका अरूप के सागर में पहुँचे । जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है । वह अवश्य ही असीम को पहुँचता है । और असीम हो जाता है ।
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किसी ने मुझे भगवान कहा नहीं । मैंने ही घोषणा की । तुम कहोगे भी कैसे ? तुम्हें अपने भीतर का भगवान नहीं दिखता । मेरे भीतर का कैसे दिखेगा ? यह भ्रांति भी छोड़ दो कि तुम मुझे भगवान कहते हो । जिसे अपने भीतर का नहीं दिखा । उसे दूसरे के भीतर का कैसे दिखेगा ? भगवान की तो मैंने ही घोषणा की है । और यह खयाल रखना । तुम्हें कभी किसी में नहीं दिखा । कृष्ण ने खुद घोषणा की । तुम्हारे कहने से थोड़े ही कृष्ण भगवान हैं । दूसरे के कहने से तो कोई भगवान हो भी कैसे सकता है ? यह कोई दूसरों का निर्णय थोड़े ही है । यह तो स्वात रूप से निज घोषणा है ।
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पूर्णता 1 विक्षिप्त विचार है । भ्रष्ट न होने वाली बात मूर्ख पोलक पोप के लिए उचित है । पर समझदार लोगों के लिए नहीं । बुद्धिमान व्यक्ति समझेगा कि जीवन 1 रोमांच है । प्रयास और गलतियां करते हुए सतत अन्वेषण का रोमांच । यही आनंद है । यह बहुत रसपूर्ण है । मैं नहीं चाहता कि तुम परफेक्ट हो जाओ । मैं चाहता हूं कि तुम जितना संभव हो । उतना परफेक्टली इनपरफेक्ट होओ । अपने अपूर्ण होने का आनंद लो । अपने सामान्य होने का आनंद लो । तथाकथित होलीनेसेस से सावधान । वे सभी फोनीनेसेस हैं । यदि तुम ऐसे बड़े शब्द पसंद करते हो - होलीनेस । तो ऐसा टायटल बनाओ - वेरी ऑर्डिनरीनेस HVO  न कि HH । मैं सामान्य होना सिखाता हूं । मैं किसी तरह के चमत्कार का दावा नहीं करता । मैं साधारण व्यक्ति हूं । और मैं चाहता हूं कि तुम भी बहुत सामान्य बनो । ताकि तुम इन 2 विपरीत भावों से मुक्त हो सको - अपराध बोध । और पाखंड से । ठीक मध्य में स्वस्थ चित्तता है ।

शनिवार, 21 जून 2014

योग दर्शन

परमात्मा ने संसार के संचालन का ज़िम्मा काल को देते हुए आत्माओं 

को उसके हवाले कर दिया। अब काल नहीं चाह्ता कि कोई भी जीव


 उसके चंगुल से निकल कर परमात्मा से वापिस मिलाप कर सके। 


इसीलिए उसने मन को सभी जीवों के पीछे लगा रखा है। जीव को काबू में  

रखने के   लिए मन के पाँच हथियार हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और 


अहंकार।  अध्यात्म विज्ञान के अनुसार अंतश्चतुष्ट्य में क्रमशः मन,  


बुद्धि, चित्त   और अहंकार आते हैं। ‘अहं’ मन, बुद्धि और चित्त से ऊपर 


है। फिर उसे  हल्के में नहीं लिया जा सकता। जैनदर्शन मन को नियंत्रित 


कर इंद्रियों  को जीतने की बात करता है। यानी मन रूपी अरि का हनन 


की आध्यात्मिक दृष्टि में अरिहंत कहा गया। बौद्धदर्शन बुद्धि के 


अस्तित्व को श्रेष्ठता प्रदान कर नित्यानित्य का भेद करने वाले विवेक 


से काम लेता  है, बुद्धि से ही बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्क्त हो सकते हैं। ये 


दोनों दर्शन कर्मसिद्धांत के आधार पर क्रमशः मन-बुद्धि पर नियंत्रण को 


तत्वज्ञान मानते हैं, जबकि योग दर्शन चित्त पर अंकुश लगाता है। 


‘‘योगश्चित्तवृत्तिः निरोधः’’ चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण की योग है। यहां 


भी कर्म सिद्धांत ही है- ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्।’’ चौथा निर्गुण तत्व 


अहंकार है। जिस पर सभी दर्शन मन, बुद्धि और चित्त से अलग सोच न

 
रखकर सिर्फ अहंकार से आच्छादित मन को जीतने में विश्वास रखते हैं,

 
यदि मन से अहं निकल जाये तो समझो हम जीत गये। इसी तरह बुद्धि

 
और चित्त से अहं को मिटाकर निरहंकार कर्म की कुशलता का पाठ 


पढ़ाया जाता है। क्या अहंकार मिट सकता है? मन बुद्धि चित्त जितने 


महत्वपूर्ण हैं। उतना ही महत्वपूर्ण अहं है। अहं यानी मैं जब तक ‘नाम-


रूप’ यानी देह है, तब तक अहं के तत्व को नहीं समझा जा सकता। मैं देह

 
नहीं, देही हूं। आत्मतत्व में अहं का एकात्म ही अहंकार का मूलतत्व है।

 
वास्तव में ‘मैं’ यानी देह में देही यानी आत्मा की सत्ता है। अहं को 


आत्मतत्व में विलीन करना ही साधना है   जब मन वश में आ जायेगा 


तो यह पाँच शत्रु या विकार भी वश में आ जाते हैं और इनकी जगह शील,

 
क्षमा, संतोष, विवेक और नम्रता आदि गुण ले लेते हैं, जो आत्मा के 


स्वभाविक गुण हैं।

मंगलवार, 6 मई 2014

श्रीललिता चिन्तामणिमाला स्तोत्र

श्रीललिता चिन्तामणिमाला स्तोत्र

ॐ अस्य श्रीललिता चिन्तामणिमाला स्तोत्र महामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिर्भगवान् ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीचिन्तामणि महाविद्येश्वरी ललिता महाभट्टारिका देवता ऐं बीजं क्लीं शक्तिः सौः कीलकं श्रीललिताम्बिका प्रसादसिद्धर्थे जपे विनियोगः || 
ध्यानम् 
बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् |
पाशाङ्कुशधनुर्बाणान् धारयन्तीं शिवां भजे ||

ऐं ह्रीं श्रीं
ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी |
चिदग्निकुण्डसम्भूता देवकार्यसमुद्यता ||
उद्यद्भानुसहस्राभा चतुर्बाहुसमन्विता |
रागस्वरूपपाशाढ्या क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला ||
मनोरूपेक्षुकोदण्डा पञ्चतन्मात्रसायका |
निजारुणप्रभापूरमज्जद्ब्रह्माण्डमण्डला ||
चम्पकाशोकपुन्नागसौगन्धिकलसत्कचा |
कुरुविन्दमणिश्रेणीकनत्कोटीरमण्डिता ||
अष्टमीचन्द्रविभ्राजदलिकस्थलशोभिता |
मुखचन्द्रकलङ्काभमृगनाभिविशेषका ||
वदनस्मरमाङ्गल्यगृहतोरणचिल्लिका |
वक्त्रलक्ष्मीपरीवाहचलन्मीनाभलोचना ||
नवचम्पकपुष्पाभनासादण्डविराजिता |
ताराकान्तितिरस्कारिनासाभरणभासुरा ||
कदम्बमञ्जरीकॢप्तकर्णपूरमनोहरा |
ताटङ्कयुगलीभूततपनोडुपमण्डला ||
पद्मरागशिलादर्शपरिभाविकपोलभूः |
नवविद्रुमबिम्बश्रीन्यक्कारिरदनच्छदा ||
शुद्धविद्याङ्कुराकारद्विजपङ्क्तिद्वयोज्ज्वला |
कर्पूरवीटिकामोदसमाकर्षद्दिगन्तरा || १०||
निजसल्लापमाधुर्यविनिर्भर्त्सितकच्छपी |
मन्दस्मितप्रभापूरमज्जत्कामेशमानसा ||
अनाकलितसादृश्यचिबुकश्रीविराजिता |
कामेशबद्धमाङ्गल्यसूत्रशोभितकन्धरा ||
कनकाङ्गदकेयूरकमनीयभुजान्विता |
रत्नग्रैवेयचिन्ताकलोलमुक्ताफलान्विता ||
कामेश्वरप्रेमरत्नमणिप्रतिपणस्तनी |
नाभ्यालवालरोमालिलताफलकुचद्वयी ||
लक्ष्यरोमलताधारतासमुन्नेयमध्यमा |
स्तनभारदलन्मध्यपट्टबन्धवलित्रया ||
अरुणारुणकौसुम्भवस्त्रभास्वत्कटीतटी |
रत्नकिङ्किणिकारम्यरशनादामभूषिता ||
कामेशज्ञातसौभाग्यमार्दवोरुद्वयान्विता |
माणिक्यमुकुटाकारजानुद्वयविराजिता ||
इन्द्रगोपपरिक्षिप्तस्मरतूणाभजङ्घिका |
गूढगुल्फा कूर्मपृष्ठजयिष्णुप्रपदान्विता ||
नखदीधितिसंछन्ननमज्जनतमोगुणा |
पदद्वयप्रभाजालपराकृतसरोरुहा ||
शिञ्जानमणिमञ्जीरमण्डितश्रीपदाम्बुजा |
मरालीमन्दगमना महालावण्यशेवधिः ||
सर्वारुणाऽनवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता |
शिवकामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीनवल्लभा ||
सुमेरुमध्यशृङ्गस्था श्रीमन्नगरनायिका |
चिन्तामणिगृहान्तस्था पञ्चब्रह्मासनस्थिता ||
महापद्माटवीसंस्था कदम्बवनवासिनी |
सुधासागरमध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी ||
देवर्षिगणसंघातस्तूयमानात्मवैभवा |
भण्डासुरवधोद्युक्तशक्तिसेनासमन्विता ||
सम्पत्करीसमारूढसिन्धुरव्रजसेविता |
अश्वारूढाधिष्ठिताश्वकोटिकोटिभिरावृता ||
चक्रराजरथारूढसर्वायुधपरिष्कृता |
गेयचक्ररथारूढमन्त्रिणीपरिसेविता ||
किरिचक्ररथारूढदण्डनाथापुरस्कृता |
ज्वालामालिनिकाक्षिप्तवह्निप्राकारमध्यगा ||
भण्डसैन्यवधोद्युक्तशक्तिविक्रमहर्षिता |
नित्यापराक्रमाटोपनिरीक्षणसमुत्सुका ||
भण्डपुत्रवधोद्युक्तबालाविक्रमनन्दिता |
मन्त्रिण्यम्बाविरचितविषङ्गवधतोषिता ||
विशुक्रप्राणहरणवाराहीवीर्यनन्दिता |
कामेश्वरमुखालोककल्पितश्रीगणेश्वरा ||
महागणेशनिर्भिन्नविघ्नयन्त्रप्रहर्षिता |
भण्डासुरेन्द्रनिर्मुक्तशस्त्रप्रत्यस्त्रवर्षिणी ||
कराङ्गुलिनखोत्पन्ननारायणदशाकृतिः |
महापाशुपतास्त्राग्निनिर्दग्धासुरसैनिका ||
कामेश्वरास्त्रनिर्दग्धसभण्डासुरशून्यका |
ब्रह्मोपेन्द्रमहेन्द्रादिदेवसंस्तुतवैभवा ||
हरनेत्राग्निसंदग्धकामसञ्जीवनौषधिः |
श्रीमद्वाग्भवकूटैकस्वरूपमुखपङ्कजा ||
कण्ठाधःकटिपर्यन्तमध्यकूटस्वरूपिणी |
शक्तिकूटैकतापन्नकट्यधोभागधारिणी ||
मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रयकलेबरा |
कुलामृतैकरसिका कुलसंकेतपालिनी ||
कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी |
अकुला समयान्तस्था समयाचारतत्परा ||
मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थिविभेदिनी |
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थिविभेदिनी ||
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थिविभेदिनी |
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी ||
तटिल्लतासमरुचिः षट्चक्रोपरिसंस्थिता |
महासक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तुतनीयसी |
श्रीशिवा शिवशक्त्यैक्यरूपिणी ललिताम्बिका ||