गुरुवार, 7 अगस्त 2014

बैरि-नाशक हनुमान ग्यारहवाँ

बैरि-नाशक हनुमान ग्यारहवाँ
विधिः- दूसरे से माँगे हुए मकान में, रक्षा-विधान, कलश-स्थापन, गणपत्यादि लोकपालों का पूजन कर हनुमान जी की प्रतिमा-प्रतिष्ठा करे। नित्य ११ या १२१ पाठ, ११ दिन तक करे। ‘प्रयोग’ भौमवार से प्रारम्भ करे। ‘प्रयोग’-कर्त्ता रक्त-वस्त्र धारण करे और किसी के साथ अन्न-जल न ग्रगण करे।

अञ्जनी-तनय बल-वीर रन-बाँकुरे, करत हुँ अर्ज दोऊ हाथ जोरी,
शत्रु-दल सजि के चढ़े चहूँ ओर ते, तका इन पातकी न इज्जत मेरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेहि झपट मत करहु देरी,
मातु की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, अञ्जनी-सुवन मैं सरन तोरी।।१

पवन के पूत अवधूत रघु-नाथ प्रिय, सुनौ यह अर्ज महाराज मेरी,
अहै जो मुद्दई मोर संसार में, करहु अङ्ग-हीन तेहि डारौ पेरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, करहु तेहि चूर लंगूर फेरी,
पिता की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, पवन के सुवन मैं सरन तोरी।।२

राम के दूत अकूत बल की शपथ, कहत हूँ टेरि नहि करत चोरी,
और कोई सुभट नहीं प्रगट तिहूँ लोक में, सकै जो नाथ सौं बैन जोरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेहि पकरि धरि शीश तोरी,
इष्ट की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, राम का दूत मैं सरन तोरी।।३

केसरी-नन्द सब अङ्ग वज्र सों, जेहि लाल मुख रंग तन तेज-कारी,
कपीस वर केस हैं विकट अति भेष हैं, दण्ड दौ चण्ड-मन ब्रह्मचारी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, करहू तेहि गर्द दल मर्द डारी,
केसरी की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।४

लीयो है आनि जब जन्म लियो यहि जग में, हर्यो है त्रास सुर-संत केरी,
मारि कै दनुज-कुल दहन कियो हेरि कै, दल्यो ज्यों सह गज-मस्त घेरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, हनौ तेहि हुमकि मति करहु देरी,
तेरी ही आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।५

नाम हनुमान जेहि जानैं जहान सब, कूदि कै सिन्धु गढ़ लङ्क घेरी,
गहन उजारी सब रिपुन-मद मथन करी, जार्यो है नगर नहिं कियो देरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, लेहु तेही खाय फल सरिस हेरी,
तेरे ही जोर की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।६

गयो है पैठ पाताल महि, फारि कै मारि कै असुर-दल कियो ढेरी,
पकरि अहि-रावनहि अङ्ग सब तोरि कै, राम अरु लखन की काटि बेरी,
करत जो चगुलई मोर दरबार में, करहु तेहि निरधन धन लेहु फेरी,
इष्ट की आनि तोहि, सुनहु प्रभु कान से, वीर हनुमान मैं सरन तेरी।।७

लगी है शक्ति अन्त उर घोर अति, परेऊ महि मुर्छित भई पीर ढेरी,
चल्यो है गरजि कै धर्यो है द्रोण-गिरि, लीयो उखारि नहीं लगी देरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, पटकौं तेहि अवनि लांगुर फेरी,
लखन की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।८

हन्यो है हुमकि हनुमान काल-नेमि को, हर्यो है अप्सरा आप तेरी,
लियो है अविधि छिनही में पवन-सुत, कर्यो कपि रीछ जै जैत टैरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, हनो तेहि गदा हठी बज्र फेरी,
सहस्त्र फन की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।९

केसरी-किशोर स-रोर बरजोर अति, सौहै कर गदा अति प्रबल तेरी,
जाके सुने हाँक डर खात सब लोक-पति, छूटी समाधि त्रिपुरारी केरी,
करत जो चुगलई मोर दरबार में, देहु तेहि कचरि धरि के दरेरी,
केसरी की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।१०

लीयो हर सिया-दुख दियो है प्रभुहिं सुख, आई करवास मम हृदै बसेहितु,
ज्ञान की वृद्धि करु, वाक्य यह सिद्ध करु, पैज करु पूरा कपीन्द्र मोरी,
करत जो चुगलई मोर देरबार में, हनहु तेहि दौरि मत करौ देरी,
सिया-राम की आनि तोहि, सुनौ प्रभु कान दे, वीर हनुमान मैं सरन तोरी।।११

ई ग्यारहो कवित्त के पुर के होत ही प्रकट भए,
आए कल्याणकारी दियो है राम की भक्ति-वरदान मोहीं।
भयो मन मोद-आनन्द भारी और जो चाहै तेहि सो माँग ले,
देऊँ अब तुरन्त नहि करौं देरी,
जवन तू चहेगा, तवन ही होएगा, यह बात सत्य तुम मान मेरी।।१२

ई ग्यारहाँ जो कहेगा तुरत फल लहैगा, होगा ज्ञान-विज्ञान जारी,
जगत जस कहेगा सकल सुख को लहैगा, बढ़ैगी वंश की वृद्धि भारी,
शत्रु जो बढ़ैगा आपु ही लड़ि मरैगा, होयगी अंग से पीर न्यारी,
पाप नहिं रहैगा, रोग सब ढहैगा, दास भगवान अस कहत टेरी।।१३

यह मन्त्र उच्चारैगा, तेज तब बढ़ैगा, धरै जो ध्यान कपि-रुप आनि,
एकादश रोज नर पढ़ै मन पोढ़ करि, करै नहिं पर-हस्त अन्न-पानी।
भौम के वार को लाल-पट धारि कै, करै भुईं सेज मन व्रत ठानी,
शत्रु का नाश तब हो, तत्कालहि, दास भगवान की यह सत्य-बानी।।१४

इच्छित कार्य में सफलता-दायक शाबर मन्त्र

इच्छित कार्य में सफलता-दायक शाबर मन्त्र

“ॐ कामरू, कामाक्षा देवी, जहाँ बसे लक्ष्मी महारानी। आवे, घर में जमकर बैठे। सिद्ध होय, मेरा काज सुधारे। जो चाहूँ, सो 

होय। ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं फट्।”


विधि- उक्त मन्त्र का जप रात्रि-काल में करें। ग्यारह दिनों के जप के पश्चात् ११ नारियलों का हवन करे। इच्छित कार्य में 

सफलता मिलती है।

रविवार, 27 जुलाई 2014

तुम परफेक्ट हो जाओ

बाहर की वस्तु । न तो पकड़ने योग्य है । और न छोड़ने योग्य । बाहर की वस्तु । बाहर है । न तुम उसे पकड़ सकते हो । न तुम उसे छोड़ सकते हो । तुम हो कौन ? तुमने पकड़ा । वह तुम्हारी भ्रांति थी । तुम छोड़ रहे हो । यह तुम्हारी भ्रांति है । बाहर की वस्तु को न तुम्हारे पकड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । न तुम्हारे छोड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । तुम कल कहते थे । यह मकान मेरा है । मकान ने कभी नहीं कहा था कि - तुम मेरे मालिक हो । और मकान को अगर थोड़ा भी बोध होगा । तो वह हंसा होगा कि - खूब गजब के मालिक हो । क्योंकि तुमसे पहले कोई और यही कह रहा था । उससे पहले कोई और यही कह रहा था । और मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाद भी लोग होंगे । जो यही कहेंगे कि - वे मालिक हैं ।
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शहर में नौकरी कर रहे अपने लड़के का हालचाल देखने चौधरी गांव से आए । बड़े सवेरे पुत्रवधू ने पक्के गाने का अभ्यास शुरू किया । अत्यंत करुण स्वर में वह गा रही थी - पनियां भरन कैसे जाऊं ? पनियां भरन कैसे जाऊं ? शास्त्रीय संगीत तो शास्त्रीय संगीत है । उसमें तो 1 ही पंक्ति दोहराए चले जाओ - पनियां भरन कैसे जाऊं । आधे घंटे तक यही सुनते रहने के बाद बगल के कमरे से चौधरी उबल पड़े । और चिल्लाए - क्यों रे बचुआ । क्यों सता रहा है बहू को ? यहां शहर में पानी भरना क्या शोभा देगा उसे ? समझ तो अपनी अपनी है । मैं अपनी समझ से कहता हूँ । तुम अपनी समझ से समझते हो ।
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प्राणायाम सिर्फ गहरी स्वांस नहीं है । प्राणायाम बोधपूर्वक गहरी स्वांस है । इस फर्क को ठीक से समझ लें । बहुत से लोग प्राणायाम भी करते हैं । तो बोधपूर्वक नहीं । बस गहरी स्वांस लेते रहते हैं । अगर गहरी स्वांस ही आप सिर्फ लेंगे । तो अपान स्वस्थ हो जाएगा । बुरा नहीं है । अच्छा है । लेकिन ऊर्ध्वगति नहीं होगी । ऊर्ध्वगति तो तब होगी । जब स्वांस की गहराई के साथ आपकी अवेयरनेस, आपकी जागरूकता भीतर जुड़ जाए ।
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अगर आपको द्रष्टा का अनुभव होने लगे । दर्शन से आंख हटे । दृश्य से आंख हटे । और पीछे छिपे द्रष्टा से थोड़ा सा भी तालमेल बैठने लगे । तो परमात्मा को आप पाएंगे कि उससे ज्यादा समीप और कोई भी नहीं । अभी उससे ज्यादा दूर । और कोई भी नहीं है । अभी परमात्मा सिर्फ कोरा शब्द है । और जब भी हम सोचते हैं । तो ऐसा लगता है कि आकाश में कहीं बहुत दूर परमात्मा बैठा होगा । किसी सिंहासन पर । यात्रा लंबी मालूम पड़ती है । और परमात्मा यहां बैठा है । ठीक सासों के पीछे ।
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विचार 1 वस्तु है । उसका अपना स्वयं का अस्तित्व होता है । जब कोई आदमी मरता है । तो उसके सारे पागल विचार तुरंत निकल भागते हैं । और वे कहीं न कहीं शरण ढूंढना शुरू कर देते हैं । फौरन वे उनमें प्रवेश कर जाते हैं । जो आसपास होते हैं । वे कीटाणुओं की भांति होते हैं । उनका अपना जीवन है । कई बार अचानक एक उदासी तुम्हें जकड़ लेती है । 1 विचार गुजर रहा है । तुम तो बस रास्ते में हो । यह 1 दुर्घटना है । विचार 1 बादल की भांति गुजर रहा था । 1 उदास विचार किसी के द्वारा छोड़ा हुआ । यह 1 दुर्घटना है कि तुम पकड़ में आ गये हो ।
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मैं चाहता हूँ कि हम मूर्तियों से मुक्त हो सकें । ताकि जो अमूर्त है । उसके दर्शन संभव हों । रूप पर जो रुका है । वह अरूप पर नहीं पहुँच पाता है । और आकार जिसकी दृष्टि में है । वह निराकार सागर में कैसे कूदेगा ? और वह जो दूसरे की पूजा में है । वह अपने पर आ सके । यह कैसे संभव है ? मूर्ति को अग्नि दो । ताकि अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे । और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो । ताकि निराकार आकाश उपलब्ध हो सके । और रूप को बहने दो । ताकि नौका अरूप के सागर में पहुँचे । जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है । वह अवश्य ही असीम को पहुँचता है । और असीम हो जाता है ।
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किसी ने मुझे भगवान कहा नहीं । मैंने ही घोषणा की । तुम कहोगे भी कैसे ? तुम्हें अपने भीतर का भगवान नहीं दिखता । मेरे भीतर का कैसे दिखेगा ? यह भ्रांति भी छोड़ दो कि तुम मुझे भगवान कहते हो । जिसे अपने भीतर का नहीं दिखा । उसे दूसरे के भीतर का कैसे दिखेगा ? भगवान की तो मैंने ही घोषणा की है । और यह खयाल रखना । तुम्हें कभी किसी में नहीं दिखा । कृष्ण ने खुद घोषणा की । तुम्हारे कहने से थोड़े ही कृष्ण भगवान हैं । दूसरे के कहने से तो कोई भगवान हो भी कैसे सकता है ? यह कोई दूसरों का निर्णय थोड़े ही है । यह तो स्वात रूप से निज घोषणा है ।
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पूर्णता 1 विक्षिप्त विचार है । भ्रष्ट न होने वाली बात मूर्ख पोलक पोप के लिए उचित है । पर समझदार लोगों के लिए नहीं । बुद्धिमान व्यक्ति समझेगा कि जीवन 1 रोमांच है । प्रयास और गलतियां करते हुए सतत अन्वेषण का रोमांच । यही आनंद है । यह बहुत रसपूर्ण है । मैं नहीं चाहता कि तुम परफेक्ट हो जाओ । मैं चाहता हूं कि तुम जितना संभव हो । उतना परफेक्टली इनपरफेक्ट होओ । अपने अपूर्ण होने का आनंद लो । अपने सामान्य होने का आनंद लो । तथाकथित होलीनेसेस से सावधान । वे सभी फोनीनेसेस हैं । यदि तुम ऐसे बड़े शब्द पसंद करते हो - होलीनेस । तो ऐसा टायटल बनाओ - वेरी ऑर्डिनरीनेस HVO  न कि HH । मैं सामान्य होना सिखाता हूं । मैं किसी तरह के चमत्कार का दावा नहीं करता । मैं साधारण व्यक्ति हूं । और मैं चाहता हूं कि तुम भी बहुत सामान्य बनो । ताकि तुम इन 2 विपरीत भावों से मुक्त हो सको - अपराध बोध । और पाखंड से । ठीक मध्य में स्वस्थ चित्तता है ।