मंगलवार, 19 जून 2018

।। ब्राह्मणत्व का हनन ।।

।। ब्राह्मणत्व का हनन ।।

मित्रों आज कल ब्राह्मणों पर हो रहे अत्याचारों अन्याय के लिए कौन जिम्मेदार है ? यह यक्ष प्रश्न आज हम लोगों के सामने समुपस्थित है, हजारों वर्ष तक मुसलमान शासकों और अन्य भी विविध विरोधी आक्रांताओं से सनातन धर्म की रक्षा करने वाला भूदेव आज स्वयं अपने को असहाय पा रहा है इसका क्या कारण है कभी सोचा है आपने । जिनके पूर्वज मृत्यु को भी वश में रखने वाले थे बड़े से बड़े तूफ़ान को भी निमिष मात्र में रोकने की क्षमता रखने वाले थे , स्वयं अखिल कोटि ब्रह्मांड नायक भी अवतार लेकर जिनकी पूजा करते हों आज उन्हीं के वंशज हम कितने असहाय हो गए सोचिये जरा इसका भी कारण ।

एक मात्र 5 वर्ष के ऋषि कुमार बालक श्रृंगी जो नदी के तट पर खेल रहे थे अचानक उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके पिता शमीक ऋषि को राजा परीक्षित ने सर्प से डसवा के मार दिया इतना सुनते ही उस बालक ने कौशिकी नदी के जल में उतर कर राजा को शाप दे दिया कि आज से ठीक सातवें दिन तक्षक के डसे जाने से राजा की मृत्यु होगी । आगे की कथा सब जानते ही हैं अब जरा विचार करें कहाँ तो चक्रवर्ती सम्राट महाभागवत राजा परीक्षित जिन्होंने माँ के गर्भ में ही भगवान का दर्शन प्राप्त कर लिया और तो और भगवान की कृपा से अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी जिनका बाल बाँका नहीं हुआ , कलि के ऊपर जिन्होंने विजय प्राप्त की और उसे सीमित स्थानों में बाँध दिया । और कहाँ छोटा सा ऋषि कुमार । लेकिन उस बालक के मुख से निकला वचन अमोघ हो गया आखिर क्या कारण रहा होगा ??
विश्वामित्र ने हजारों वर्षों तक तपस्या करके अनेकानेक अस्त्र शस्त्रों को प्राप्त कर के श्री वशिष्ठ जी के ऊपर आक्रमण किया और असफल हुए । अंतिम में बोल उठे
' धिक् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे ।।'
आखिर वो किस चीज का बल था कि ब्राह्मणों के आगे सब नतमस्तक हो जाते थे । और एक आज का समय है ब्राह्मण दूसरों के आगे अपने को असहाय महसूस करता है आखिर क्या है इसका कारण ? अगर ईमानदारी से सोचा जाए तो इसका जिम्मेदार स्वयं ब्राह्मण ही है क्यों कि ब्राह्मण ने अपना पतन स्वयं ही किया , सन्ध्या वंदन ,अग्निहोत्रादि को त्याग कर । भाइयों आपसे इतना ही कहना है कि आज भी आप चाहें तो दुनिया आपके चरणों में हो । नित्य त्रिकाल नहीं तो कम से कम द्विकाल संध्योपासन तो करिये कम से कम नियम पूर्वक प्रतिदिन 1000 गायत्री का जाप तो करिये , शिखा सूत्र तो धारण कीजिये , राजसी तामसी अन्न का त्याग पूर्वक सात्विक अन्न से विधि पूर्वक जीवन का निर्वहन तो करिये फिर देखिये क्या होता है । अगर जीवन में किसी वस्तु की कमी हो जाए तो कहियेगा । मात्र इतना करने से ही कुछ समय में आप स्वयं अपना तेज भगवत् कृपा का प्रत्यक्ष करने लगेगें । एक मात्र ब्राह्मण का त्यौहार श्रावणी(रक्षा बन्धन ) का अनुष्ठान सभी को यथा शक्ति करना ही चाहिए जिसके प्रभाव से स्वयं तो लाभान्वित होंगे ही और दूसरों को भी लाभान्वित कर सकेंगें ।
।। जय श्रीमन्नारायण ।।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

श्री बगला पंजर न्यास कवच



॥ श्रीबगला त्रैलोक्य-विजय कवचम् ॥

॥ श्रीबगला त्रैलोक्य-विजय कवचम् ॥

।। श्री भैरव उवाचः ।।

श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि स्व-रहस्यं च कामदम् ।
श्रुत्वा गोप्यं गुप्ततमं कुरु गुप्तं सुरेश्वरि ।। १

कवचं बगलामुख्याः सकलेष्टप्रदं कलौ ।
तत्सर्वस्वं परं गुह्यं गुप्तं च शरजन्मना ।। २

त्रैलोक्य-विजयं नाम कवचेशं मनोरमम् ।
मन्त्र-गर्भं ब्रह्ममयं सर्व-विद्या विनायकम् ।।३

रहस्यं परमं ज्ञेयं साक्षाद्-मृतरुपकम् ।
ब्रह्मविद्यामयं वर्म सर्व-विद्या विनायकम् ।। ४

पूर्णमेकोनपञ्चाशद् वर्णैरुक्त महेश्वरि ।
त्वद्भक्त्या वच्मि देवेशि गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥५

।। श्री देव्युवाच ।।

भगवन् करुणासार विश्वनाथ सुरेश्वर ।
कर्मणा मनसा वाचा न वदामि कदाचन् ।। १

।। श्री भैरव उवाच ।।

त्रैलोक्य विजयाख्यस्य कवचास्यास्य पार्वति ।
मनुगर्भस्य गुप्तस्य ऋषिर्देवोऽस्य भैरवः ।। १

उष्णिक्-छन्दः समाख्यातं देवी श्रीबगलामुखी ।
बीजं ह्लीं ॐ शक्तिः स्यात् स्वाहा कीलकमुच्यते ।। २

विनियोगः समाख्यातः त्रिवर्ग-फल-प्राप्तये ।
देवि त्वं पठ वर्मैतन्मन्त्र-गर्भं सुरेश्वरि ।। ३

बिनाध्यानं कुतः सिद्धि सत्यमेतच्च पार्वति ।
चन्द्रोद्भासितमूर्धजां रिपुरसां मुण्डाक्षमालाकराम् ।। ४

बालांसत्स्रकचञ्चलां मधुमदां रक्तां जटाजूटिनीम् ।
शत्रु-स्तम्भन-कारिणीं शशिमुखीं पीताम्बरोद्भासिनीम् ।। ५

प्रेतस्थां बगलामुखीं भगवतीं कारुण्यरुपां भजे ।
ॐ ह्लीं मम शिरः पातु देवी श्रीबगलामुखी ।।६

ॐ ऐं क्लीं पातु मे भालं देवी स्तम्भनकारिणी ।
ॐ अं इं हं भ्रुवौ पातु क्लेशहारिणी ।। ७

ॐ हं पातु मे नेत्रे नारसिंही शुभंकरी ।
ॐ ह्लीं श्रीं पातु मे गण्डौ अं आं इं भुवनेश्वरी ।। ८

ॐ ऐं क्लीं सौः श्रुतौ पातु इं ईं ऊं च परेश्वरी ।
ॐ ह्लीं ह्लूं ह्लीं सदाव्यान्मे नासां ह्लीं सरस्वती ।। ९

ॐ ह्रां ह्रीं मे मुखं पातु लीं इं ईं छिन्नमस्तिका ।
ॐ श्री वं मेऽधरौ पातु ओं औं दक्षिणकालिका ।। १०

ॐ क्लीं श्रीं शिरसः पातु कं खं गं घं च सारिका ।
ॐ ह्रीं ह्रूं भैरवी पातु ङं अं अः त्रिपुरेश्वरी ।।११

ॐ ऐं सौः मे हनुं पातु चं छं जं च मनोन्मनी ।
ॐ श्रीं श्रीं मे गलं पातु झं ञं टं ठं गणेश्वरी ।। १२

ॐ स्कन्धौ मेऽव्याद् डं ढं णं हूं हूं चैव तु तोतला ।
ॐ ह्रीं श्रीं मे भुजौ पातु तं थं दं वर-वर्णिनी ।। १३

ऐं क्लीं सौः स्तनौ पातु धं नं पं परमेश्वरी ।
क्रों क्रों मे रक्षयेद् वक्षः फं बं भं भगवासिनी ।। १४

ॐ ह्रीं रां पातु कक्षि मे मं यं रं वह्नि-वल्लभा ।
ॐ श्रीं ह्रूं पातु मे पार्श्वौ लं बं लम्बोदर प्रसूः ।। १५

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रूं पातु मे नाभि शं षं षण्मुख-पालिनी ।
ॐ ऐं सौः पातु मे पृष्ठं सं हं हाटक-रुपिणी ।। १६

ॐ क्लीं ऐं कटि पातु पञ्चाशद्-वर्ण-मालिका ।
ॐ ऐं क्लीं पातु मे गुह्यं अं आं कं गुह्यकेश्वरी ।। १७


ॐ श्रीं ऊं ऋं सदाव्यान्मे इं ईं खं खां स्वरुपिणी ।
ॐ जूं सः पातु मे जंघे रुं रुं धं अघहारिनी।। १८

श्रीं ह्रीं पातु मे जानू उं ऊं णं गण-वल्लभा ।
ॐ श्रीं सः पातु मे गुल्फौ लिं लीं ऊं चं च चण्डिका ।। १९

ॐ ऐं ह्रीं पातु मे वाणी एं ऐं छं जं जगत्प्रिया ।
ॐ श्रीं क्लीं पातु पादौ मे झं ञं टं ठं भगोदरी ।। २०

ॐ ह्रीं सर्वं वपुः पातु अं अः त्रिपुर-मालिनी ।
ॐ ह्रीं पूर्वे सदाव्यान्मे झं झां डं ढं शिखामुखी ।। २१

ॐ सौः याम्यं सदाव्यान्मे इं ईं णं तं च तारिणी ।
ॐ वारुण्यां च वाराही ऊं थं दं धं च कम्पिला ।। २२

ॐ श्रीं मां पातु चैशान्यां पातु ॐ नं जनेश्वरी ।
ॐ श्रीं मां चाग्नेयां ऋं भं मं धं च यौगिनी ।।२३

ॐ ऐं मां नैऋत्यां लूं लां राजेश्वरी तथा ।
ॐ श्रीं पातु वायव्यां लृं लं वीतकेशिनी ।
ॐ प्रभाते च मो पातु लीं लं वागीश्वरी सदा ।। २४

ॐ मध्याह्ने च मां पातु ऐं क्षं शंकर-वल्लभा ।
श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सायं ऐ आं शाकम्भरी सदा ।। २५

ॐ ह्रीं निशादौ मां पातु ॐ सं सागरवासिनी ।
क्लीं निशीथे च मां पातु ॐ हं हरिहरेश्वरी ।।२६

क्लीं ब्राह्मे मुहूर्तेऽव्याद लं लां त्रिपुर-सुन्दरी ।
विसर्गा तु यत्स्थानं वर्जित कवचेन तु ।। २७

क्लीं तन्मे सकलं पातु अं क्षं ह्लीं बगलामुखी ।
इतीदं कवचं दिव्यं मन्त्राक्षरमय परम् ।। २८

त्रैलोक्यविजयं नाम सर्व-वर्ण-मयं स्मृतम् ।
अप्रकाश्यं सदा देवि श्रोतव्यं च वाचिकम् ।।२९

दुर्जनायाकुलीनाय दीक्षाहीनाय पार्वति ।
न दातव्यं न दातव्यमित्याज्ञा परमेश्वरी ।। ३०

दीक्षाकार्य विहीनाय शक्ति-भक्ति विरोधिने ।
कवचस्यास्य पठनात् साधको दीक्षितो भवेत्॥३१

कवचेशमिदं गोप्यं सिद्ध-विद्या-मयं परम् ।
ब्रह्मविद्यामयं गोप्यं यथेष्टफलदं शिवे ।। ३२

न कस्य कथितं चैतद् त्रैलोक्य विजयेश्वरम् ।
अस्य स्मरण-मात्रेण देवी सद्योवशी भवेत्।। ३३

पठनाद् धारणादस्य कवचेशस्य साधकः ।
कलौ विचरते वीरो यथा श्रीबगलामुखी ।।

।। श्री विश्वयामले बगलामुख्यास्त्रैलोक्यविजयं कवचम्।।