रविवार, 3 मई 2020

गुरु कौन है

गुरु कौन है

आजकल अज्ञानता की लहर सी फैली हुई है जिसको देखो ज्ञान बघारने लगता है चाहे उसे कोई अनुभव हुआ हो अथवा न हुआ हो । बहुत से लोग किताबें पढ़कर ज्ञान बाँट रहे है आजकल सभी बंधू एक बहुत ही बड़े अज्ञानता में रह रहे है की गुरु केवल मार्ग दर्शक का काम करता है अर्थात वो केवल रास्ता दिखलाता है । या तो उन लोगो की गुरु से भेट नहीं हुई है अथवा वो गुरु का अर्थ नहीं जानते । गुरु शब्द से गुरुत्व का आभास होता है. अर्थात जहां गुरुत्व है वही तो गुरु है गुरुत्व का मतलब आकर्षण है गुरु अपनी ओर आकर्षित करता है क्योंकि उसमे गुरुत्व होता है । गुरु सर्व समर्थ होता है वह कर्तुं अकर्तुम और अन्यथा कर्त्तुम में समर्थ होता है वह अपनी कृपा मात्र से शिष्य के हृदय की मलिनता दूर कर देता है । जिसमे यह समर्थ्य हो वही गुरु है अन्य कोई भी गुरु पद का अधिकारी नहीं है । वह सभी कुछ कर सकता है ।
ऐसे गुरु के लिए ही कहा गया है :-

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

अतः पूर्ण ज्ञानी चेतन्य रूप पुरुष के लिए गुरु शब्द प्रयुक्त होता है, उसकी ही स्तुति की जाती है। नानक देव, त्रेलंग स्वामी, तोतापुरी, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, स्वामी समर्थ, साईं बाबा, महावातर बाबा, लाहडी महाशय, हैडाखान बाबा, सोमबार गिरी महाराज, स्वामी शिवानन्द, आनंदमई माँ, स्वामी बिमलानंदजी, मेहर बाबा आदि सच्चे गुरु रहे हैं।

अतः यह अज्ञान है की केवल रास्ता बताने वाला गुरु होता है केवल रास्ता बताने पर भी यदि शिष्य न चल पाए तो ?

नहीं, गुरु शिष्य को उस रास्ते पर चलने की सामर्थ्य भी देता है । गुरु सर्व समर्थ्यवान है । अतः ईश्वर से प्रार्थना करे की वो आपको ऐसा गुरु प्रदान करे ।

मेरे गुरु ऐसे ही सामर्थ्यवान दादा जी महाराज गोसलपुर वाले (श्री श्री १००८ परमहंस शिवदत्त जी महाराज ) हैं जो अब समाधिस्थ है पर शिष्यों के लिए प्रकट है

नोट :- गोसलपुर मध्यप्रदेश जबलपुर के पास है जो कटनी और जबलपुर के बीच में पड़ता है वहां गुरु जी की समाधी है



शिष्य जब परम प्रकाशरूप प्रभु के दर्शन करता है तो उसके पाप कटते है और वो परमात्मा ज्योति अपनी और आकर्षित करती चली जाती है तब वो ही गुरु बन जाती है और मार्गदर्शन करती है  उसे रूहानी गुरु कहते हैं | 

संतो की हत्या

आज संतो की हत्या इसलिए हो रही है की उनमे त्याग और तपस्या का अभाव है वो लोग केवल वस्त्र और बाहरी चिन्हो को धारण करके ही संत बने हुवे है | इन्होने न तो योग को सिद्ध किया है न ज्ञान को सिद्ध किया है न ही भक्ति में ही इतने दुबे की इष्ट इनकी रक्षा को तत्पर रहे | ऐसे लोग चाहे संतो की वेशभूषा धारण करके रहे चाहे गृहस्थ की वेशभूषा, इनकी पराजय होगी ही | श्री गीता जी में कहा गया है 
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।  
अर्थात जहाँ भगवान हैं वहाँ विजय और ऐश्वर्य रहता ही है 
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है की उन संतो के ह्रदय में भगवन का वास नहीं था अगर होता तो उनकी पराजय नहीं होती | क्योंकि जहाँ  जहाँ भगवान हैं वहाँ विजय होती है पराजय नहीं | 
या तो योगी बनो नहीं तो कृष्ण को मन में बसाओ तभी विजय मिलेगी नहीं तो पराजय ही मिलेगी |   



ये घटनाये सबक है की संत केवल वेशभूषा से ही संत न रहे | भगवान को अपने में प्रकट करे तभी कल्याण होगा और तब मान सम्मान मांगना नहीं पड़ेगा | सभी लोग आपकी दया पाने को लालायित होंगे | 

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

रोग नाशक इन्द्राक्षी कवच एवं स्तोत्र



इन्द्राक्षी कवच एवं स्तोत्र विधि-

 नीचे लिखा कवच स्तोत्र साधकों की सुविधा को देखते हुए हमने संस्कृत को थोड़ा सरल रुप में लिखा है। अत: संस्कृत के प्रबुद्ध व्यक्ति कृपया इस बात का विचार करें के इसको हिंदी रुप में लिखा गया है।  भगवती के कवच स्तोत्र को पढ़कर प्रत्येक प्राणी स्वस्थ सुखी हो - बस यही कामना प्रबल रखी  गई है। सर्वप्रथम विनायक स्तोत्र का पाठ करें। फिर विनियोग से शुरु करके इन्द्राक्षी स्तोत्र तक पढें।

विनायकस्तोत्र:--
मूषक वाहन मोदक हस्त चामर कर्ण विलंबित सूत्र,
वामन रुप महेश्वर पुत्र, विघ्न विनायक पाद नमस्ते,

विनियोग:--
ऊँ अस्य श्री इन्द्राक्षी स्तोत्र महा मंत्रस्य शचि पुरन्दर ऋषि: अनुष्टुप छंद: इंद्राक्षी दुर्गा देवता। लक्ष्मीर्बीजम। भुवनेश्वरी शक्ति:, भवानीति कीलकम, मम इन्द्राक्षी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोग:

अंगन्यास:--

ऊँ इन्द्राक्षीत्य अंगुष्ठाभ्याम नम: (हाथ की तर्जनी ऊँगलियों से दोनों अंगुठों का स्पर्श)
ऊँ महालक्ष्मी-रिति तर्जनीभ्याम नम: (दोनों अंगुठे से तर्जनी ऊँगलियों का स्पर्श।)
ऊँ माहेश्वरिति मध्यमा भ्याम नम: (अँगुठे से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श)
ऊँ अम्बुजा-क्षीत्य-नामिका-भ्याम नम: (अनामिका ऊँगलियों का स्पर्श)
ऊँ कात्याय नीति कनिष्ठिका भ्याम नम: (कनिष्ठिका ऊँगलियों का स्पर्श)
ऊँ कौमारिति करतल कर पृष्ठा-भ्याम नम: (हथेलियों औऱ उनके पृष्ठ भागों का स्पर्श)

हृदयादिन्यास:--

ऊँ इन्द्राक्षीति हृदयाय नम: (हृदय का स्पर्श)
ऊँ महालक्ष्मी रिति शिरसे स्वाहा। (सिर का स्पर्श)
ऊँ माहेश्वरिति शिखायै वषट्। (शिखा का स्पर्श)
ऊँ अम्बुजा क्षिति कवचाय हुम्। (दाहिने हाथ की उंगलियों से बांये कंधे को और बांये हाथ की उँगलियों से दांये कंधे को स्पर्श)
ऊँ कात्याय निति नेत्र-त्रयाय वौषट्। (दोनों नेत्रों का स्पर्श) 
ऊँ कौमारीत्य-स्त्राय फट्। (यह वाक्या पढ कर दाहिने हाथ को सिर की ओर से उपर की तरफ से बांयी ओर से पीछे ले जाकर आगे ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों से बांये हाथ की हथेली पर ताली बजाएं)

माँ इन्द्राक्षी का ध्यान:---
नेत्राणाम दश-भिश्शतै: परिवृता-मत्युग्र-चर्माम्बराम |
हेमाभाम-महतीम विलम्बित शिखा मा मुक्त-केशान्विताम ||
घण्टा मण्डित पाद पदम युगलाम नागेन्द्र कुम्भ-स्तनीम |
इन्द्राक्षीम परिचिन्तयामि मनसा कलपोक्त सिद्धि प्रदाम ||
इन्द्राक्षीम द्विभुजाम देवीम पीत-वस्त्रम द्वयान्विताम |
वाम हस्ते वज्र धराम दक्षिणेन वर प्रदाम।।
इन्द्रादिभि: सुरैर वन्द्याम वन्दे शंकर-वल्लभाम्।
एवं ध्यात्वा महादेवीम जपेत् सर्वाथ-सिद्धये।।
इन्द्राक्षीम नौमि युवतीम नाना-लंकार-भूषिताम्।
प्रसन्न-वदनाम-म्भोजाम-अप्सरोगण-सेविताम्।।

इन्द्र उवाच:--

 इन्द्राक्षी पूर्वत: पातु पात्वाग्नेय्यामदशेश्वरी।
 कौमारी दक्षिणे पातु नैर्ऋत्याम पातु पार्वती।।
 वाराही    पश्चिमे   पातु   वायव्ये  नारसिंह्यपि
 उदीच्याम कालरात्री मामैशान्याम सर्वशक्तय:।।
 भैरव्यूर्ध्वम सदा पातु पात्वधो वैष्णवी सदा।
 एवं  दश  दिशो   रक्षेत् सर्वांगम भुवनेश्वरी ।।

इन्द्राक्षीकवचम्:---

ऊँ नमो  भगवत्यै इन्द्राक्ष्यै महालक्ष्मै सर्व जन वशमकर्यै सर्व-दुष्ट-ग्रह-स्तम्भिन्यै स्वाहा।
ऊँ नमो  भगवति पिंगल भैरवि त्रैलोक्य-लक्ष्मी त्रैलोक्य-मोहिनी-इन्द्राक्षी माम रक्ष रक्ष हुम फट् स्वाहा।

ऊँ नमो  भगवति भद्रकाली महादेवी कृष्ण-वर्णे तुंग-स्तनि शूर्प-हस्ते कवाट-वक्ष- स्थले कपालधरे परशुधरे चापधरे विकृत-रुपधरे विकृत-रुपे महा-कृष्ण-सर्प-यज्ञो-पवीतिनि भस्मो-द्धवलित-सर्व-गात्री-इन्द्राक्षी माम् रक्ष रक्ष हुम फट् स्वाहा:
ऊँ नमो भगवति प्राणेश्वरी पद्मासनेसिंह-वाहने महिषासुर-मर्दिन्य-उष्ण-ज्वर पित-ज्वर वात-ज्वर श्लेष्म-ज्वर कफ-ज्वरालाप-ज्वर संनिपात-ज्वर कृत्रिम-ज्वर कृत्यादि-ज्वरै काहिक-ज्वर द्वयाहिक-ज्वर त्र्याहिक-ज्वर चतुराहिक-ज्वर पंचाहिक-ज्वर पक्ष-ज्वर मास-ज्वर षणमास-ज्वर संवत्सर-ज्वर सर्वांग-ज्वरान नाशय-नाशय हर हर जहि जहि दह दह पच पच ताडय ताडया-कर्षया-कर्षय विद्विष: स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहयो-च्चाट्यो-च्चाट्य हुम फट् स्वाहा।
ऊँ ह्रीम ऊँ नमो भगवति प्राणेश्वरि पद्मासने लम्बोष्ठि कम्बु-कण्ठिके कलि-काम-रुपिणि पर-मंत्र पर-यंत्र पर-तंत्र प्रभेदिनि प्रति-पक्ष-विध्वंसिनि पर-बल-दुर्ग-विमर्दिनी शत्रु-कर-च्छेदिनि सकल-दुष्ट-ज्वर निवारिणि भूत-प्रेत-पिशाच-ब्रह्म-राक्षस यक्ष यमदूत शाकिनी डाकिनी कामिनी स्तम्भिनी मोहिनी वशमकरी कुक्षि-रोग शिरो-रोग नेत्र-रोग क्षया-पस्मार-कुष्ठादि-महारोग निवारिणि मम सर्व-रोगान् नाशय नाशय ह्राम ह्रीम ह्रूम ह्रैम ह्रौम ह्र: हुम फट् स्वाहा।
ऊँ ऐम श्रीम हुम दुम इन्द्राक्षि माम रक्ष रक्ष, मम शत्रून् नाशय नाशय, जलरोगान् शोषय शोषय, दु:-व्याधीन् स्फोटय स्फोटय, क्रूरानरीन् भन्जय भन्जय, मनो-ग्रन्थि-प्राण-ग्रन्थि-शिरो-ग्रन्थीन् काटय काटय, इन्द्रादि माम रक्ष रक्ष हुम फट् स्वाहा।
ऊँ नमो भगवति माहेश्वरी महा-चिन्तामणि दुर्गे सकल-सिद्धेश्वरी सकल-जन-मनोहारिणि काल-काल-रात्र्यनले-अजिते-अभये महाघोर-रुपे विश्व-रुपिणि मधु-सूदनि महा-विष्णु-स्वरुपिणि नेत्र-शूल कर्ण-शूल कटि-शूल पक्ष-शूल पाण्डु-रोग-कमलादीन् नाशय नाशय वैष्णवि ब्रह्मा-स्त्रेण विष्णु-चक्रेण रुद्र-शूलेन यम-दण्डेन वरुण-पाशेन वासव-वज्रेण सर्वानरीन् भन्जय भन्जय यक्ष-ग्रह राक्षस-ग्रह स्कन्द-ग्रह विनायक-ग्रह बाल-ग्रह चौर-ग्रह कुष्माण्ड-ग्रहादीन् निगृहण निगृहण राजयक्ष्म क्षय-रोग-ताप-ज्वर निवारिणि मम सर्व-ज्वर-नाशय नाशय सर्वग्रहा-नुच्चाटयो-च्चाटय हुम फट् स्वाहा।

इन्द्राक्षी स्त्रोतम:---
इन्द्राक्षी   नाम   सा  दैवी  दैवतै:समुदा-हृता   गौरी  शाकम्भरी देवी दुर्गा-नाम-नीती विश्रुता  ।। 
कात्यायनी    महादेवी   चन्द्रघण्टा  महातपा:   सावित्रि   सा  गायत्री  ब्रह्माणी ब्रह्म-वादिनी ।।
 नारायणी    भद्रकाली  रुद्राणी कृष्ण - पिंगला    अग्नि  ज्वाला  रौद्रमुखी कालरात्री तपस्विनी  ।। 
मेघ  -  स्वना  सहस्त्राक्षी  विकटांगी जलोदरी    महोदरी    मुक्तकेशी    घोररुपा    महाबला  ।।
अजिता  भद्रदाSSनन्दा  रोगहर्त्री   शिव - प्रिया   शिवदूती   कराली      प्रत्यक्ष   परमेश्वरी  ।। 
इन्द्राणी    इन्द्ररुपा     इन्द्रशक्ति:   परायणा   सदा सम्मोहिनी   देवी   सुन्दरी   भुवनेश्वरी  ।।
 एकाक्षरी   परा  ब्राह्मी  स्थूल  सूक्ष्म  प्रवर्तिनी   नित्यम  सकल  कल्याणी भोग मोक्ष प्रदायिनी ।। 
महिषासुर   संहर्त्री   चामुण्डा    सप्त   मातृका   वाराही   नारसिंही     भीमा  भैरव  नादिनी ।। 
श्रुति:    स्मृति-र्धृति-र्मेधा  विद्या लक्ष्मी: सरस्वती। अनन्ता  विजयापर्णा  मानस्तोका - पराजिता ।।
भवानी  पार्वती  दुर्गा   हैमवत्यम्बिका   शिवा शिवा   भवानी  रुद्राणी   शंकरार्द्ध - शरीरिणी ।।
ऐरावत -  गजारुढा    वज्र    हस्ता   वरप्रदा भ्रामरी कान्चि - कामाक्षी  क्वणन्माणिक्य-नूपुरा।।
त्रिपाद - भस्म - प्रहरणा   त्रिशिरा   रक्तलोचना। शिवा    शिवरुपा    शिव-भक्ति  परायणा  ।।
मृत्युन्जया    महामाया   सर्व  रोग  निवारिणी। ऐन्द्री  देवी  सदा  कालम शान्तिमाशु करोतु मे।।
भस्मा-युधाय विद्महे-रक्त-नेत्राय धीमहि तन्नो-ज्वर-हर: प्रचोदयात्।

एतत्  स्तोत्रम जपेन्नित्यम  सर्व - व्याधि - निवारणम् रणे   राजभये   शौर्ये   सर्वत्र  विजयी  भवेत् ।।
एतैर्नाम   -  पदैर्दिव्यै:  स्तुता  शक्रेण  धीमता सा मे प्रीत्या सुखम दद्यात् सर्वापत्ति-निवारिणी।।
ज्वरम   भूतज्वरम  चैव  शीतोष्ण-ज्वरमेव च। ज्वरम  ज्वरातिसारम अतिसार-ज्वरम हर ।।
शत-मावर्तयेद्  यस्तु मुच्यते व्याधि-बन्धनात्  आवर्तयन् सहस्त्रम तु लभते वाञ्छितम फलम् ।।
एतत्स्तोत्र-मिदम  पुण्यम  जपेदायुष्य-वर्द्धनम् विनाशाय      रोगाणामप-मृत्यु-हराय   च।।
सर्व   मंगल  मांगल्ये शिवे  सर्वार्थ - साधिके शरण्ये  त्र्यम्बके  देवि नारायणि नमोSस्तु ते।।

।। ऊं गं गणपतये नमः ।। श्री गुरुवे नम: ।। ऊं महाकालाय नमः ।। जय मां इन्द्राक्षी ।। श्री पीतांबरायै नमः ।। जय माई की ।।
इस कवच और स्तोत्र का 100 बार पाठ करने से सभी बिमारियों से छुटकारा मिलता है  और 1000 पाठ करने से वांछित फल की प्राप्ति होती है  भस्म को पाठ से मन्त्रित करके धारण करने से रोग नाश होता है