रविवार, 17 मई 2020

श्री दैवी कवच व अमोध श्री शिवमाला मंत्र


किसी भी प्रकार की महामारी एवं घातक रोग की निवृति एवं बचाव के लिए दैवी कवच पूर्ण रूप से प्रभावी हैं प्रतिदिन तीन आवृति पाठ करें।

श्री दैवी कवच

चण्डीकवचम् श्रीगणेशाय नमः अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः , अनुष्टुप् छन्दः , चामुण्डा देवता , अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम् , दिग्बन्धदेवतास्तत्वम् , श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः नमश्चण्डिकायै ॐमार्कण्डेय उवाच ॐयद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह १॥ ब्रह्मोवाच अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने २॥ प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ३॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ४॥ नवमं सिद्धिदात्री नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ५॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे विषमे दुर्गे चैव भयार्ताः शरणं गताः ६॥ तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं नहि ७॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां सिद्धिः प्रजायते प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ८॥ ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना माहेश्वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना ९॥ ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिता १०॥ दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं मुसलायुधम् ११॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव कुन्तायुधं त्रिशूलं शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् १२॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां हिताय वै १३॥ महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनी त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि १४॥ प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेयामग्निदेवता दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी १५॥ प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी उदीच्यां रक्ष कौबेरि ईशान्यां शूलधारिणी १६॥ ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना १७॥ जया मे अग्रतः स्थातु विजया स्थातु पृष्ठतः अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता १८॥ शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता मालाधरी ललाटे भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी १९॥ त्रिनेत्रा भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा नासिके शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी २०॥ कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शाङ्करी नासिकायां सुगन्धा उत्तरोष्ठे चर्चिका २१॥ अधरे चामृतकला जिह्वायां सरस्वती दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठमध्ये तु चण्डिका २२॥ घण्टिकां चित्रघण्टा महामाया तालुके कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला २३॥ ग्रीवायां भद्रकाली पृष्ठवंशे धनुर्धरी नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी २४॥ खड्गधारिण्युभौ स्कन्धौ बाहू मे वज्रधारिणी हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीस्तथा २५॥ नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेन्नलेश्वरी स्तनौ रक्षेन्महालक्ष्मीर्मनःशोकविनाशिनी २६॥ हृदये ललितादेवी उदरे शूलधारिणी नाभौ कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा २७॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी भूतनाथा मेढ्रं मे ऊरू महिषवाहिनी २८॥ जङ्घे महाबला प्रोक्ता सर्वकामप्रदायिनी गुल्फयोर्नारसिंही पादौ चामिततेजसी २९॥ पादाङ्गुलीः श्रीर्मे रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी नखान्दंष्ट्राकराली केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ३०॥ रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा रक्तमज्जावमांसान्यस्थिमेदांसी पार्वती ३१॥ अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं मुकुटेश्वरी पद्मावती पद्मकोशे कफे चुडामणिस्तथा ३२॥ ज्वालामुखी नखज्वाला अभेद्या सर्वसन्धिषु शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ३३॥ अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्ष मे धर्मचारिणि प्राणापानौ तथा व्यानं समानोदानमेव ३४॥ यशः कीर्तिं लक्ष्मीं सदा रक्षतु वैष्णवी गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ३५॥ पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी मार्गं क्षेमकरी रक्षेद्विजया सर्वतः स्थिता ३६॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ३७॥ पदमेकं गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्राधिगच्छति ३८॥ तत्र तत्रार्थ लाभश्च विजयः सार्वकामिकः यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ३९॥ परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्व पराजितः ४०॥ त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ४१॥ यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोकेष्व पराजितः ४२॥ जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्यु विवर्जितः नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ४३॥ स्थावरं जङ्गमं वापि कृत्रिमं चापि यद्विषम् अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ४४॥ भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः सहजाः कुलजा मालाः शाकिनी डाकिनी तथा ४५॥ अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ४६॥ ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ४७॥ मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले ४८॥ जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ४९॥ तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रकी देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ५०॥ प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ५१॥ इति श्रीवाराहपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देव्याः कवचं सम्पूर्णम्

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कवच करने के बाद अमोध शिव माला मंत्र की भी तीन आवृत्ति किया जाना चाहिए।

अमोध श्री शिवमाला मंत्र

नमो भगवते सदाशिवाय ! त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते ! ह्रीं ह्लीं लूं : एं ऐं महाघोरेशाय नम: ! ह्रीं ह्रौं शं नमो भगवते सदाशिवाय !

सकल तत्त्वात्मकाय , आनंद संदोहाय , सर्वमंत्रस्वरुपाय , सर्वयंत्राधिष्ठिताय , सर्वतंत्रप्रेरकाय , सर्वतत्त्वविदूराय , सर्वतत्त्वाधिष्ठिताय , ब्रह्मरुद्रावतारिणे , नीलकण्ठाय , पार्वतीमनोहरप्रियाय , महारुद्राय , सोमसूर्याग्निलोचनाय , भस्मोध्दूलितविग्रहाय , अष्टगंधादि गंधोपशोभिताय , शेषाधिपमुकुटभूषिताय , महामणिमुकुटधारणाय , सर्पालंकाराय , माणिक्यभूषणाय , सृष्टिस्थितिप्रलय काल रौद्रावताराय , दक्षाध्वरध्वंसकाय , महाकाल भेदनाय , महाकालोग्ररुपाय , मूलाधारैकनिलयाय !

तत्त्वातीताय , गंगाधराय , महाप्रपात विषभेदनाय ,महाप्रलयांतनृत्याधिष्ठिताय ,सर्वदेवाधिदेवाय , षडाश्रयाय , सकलवेदांत साराय ,त्रिवर्गसाधनायानंतकोटि ब्रह्माण्डनायकाया अनंत वासुकि तक्षक कर्कोटक शंख कुलिक पद्म महापद्म इति अष्ट महानागकुल भूषणाय प्रणवस्वरुपाय ! ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्र: , हां हीं हूं हैं हौं : !

चिदाकाशाय आकाशादि दिक स्वरुपाय ,ग्रहनक्षत्रादि सर्वप्रपंचमालिने ,सकलाय ,कलंकरहिताय ,सकललौकेक कर्त्रे ,सकललौकेकभर्त्रे , सकललौकेकसंहर्त्रे , सकललौकेकगुरवे , सकललौकेकसाक्षिणे , सकलनिगमगुह्याय ,सकलवेदांतपारगाय , सकललौकेक वरप्रदाय ,सकललौकेकसर्वदाय ,शर्मदाय ,सकललौकेक शंकराय !

शशांकशेखराय ,शाश्वत निजावासाय ,निराभासाय ,निराभयाय ,निर्मलाय ,निर्लोभाय ,निर्मदाय , निश्चिंताय , निरहंकाराय , निरंकुशाय ,निष्कलंकाय , निर्गुणाय , निष्कामाय , निरुप्लवाय ,निरवद्याय , निरंतराय , निष्कारणाय , निरातंकाय , निष्प्रयप्रकाय ,नि:संगाय ,निर्द्वंद्वाय , निराधाराय , नीरागाय ,निष्क्रोधाय , निर्मलाय ,निष्पापाय , निर्भयाय , निर्विकल्पाय , निस्तुलाय , नि:संशयाय , निरंजनाय ,निरुपमविभवाय , नित्यशुद्धबुद्ध परिपूर्ण सच्चिदानंदाद्वयाय हसौं हसौ: ह्रीं सौं क्ष क्लीं क्ष स्फ्रिं ऐं क्लीं सौ: क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्ष: !
परमशांत स्वरुपाय , सोहं तेजोरुपाय , हंस तेजोमयाय , सच्चिदेकं ब्रह्ममहामंत्र स्वरुपाय , श्रीं ह्रीं क्लीं नमो भगवते विश्वगुरवे , स्मरणमात्रसंतुष्टाय , महाज्ञानप्रदाय , सच्चिदानंदात्मने , महायोगिने ,सर्वकामफलप्रदाय , भवबंधप्रमोचनाय , क्रों सकलविभूतिदाय ,क्रीं सर्वविश्व आकर्षणाय !

जय जय रुद्र , महारौद्र , वीरभद्रावतार , महाभैरव , कालभैरव , कल्पांतभैरव , कपालमालाधर , खटवांग खडग चर्म पाशांकुश डमरु शूल चाप बाण गदा शक्ति भिंदिपाल तोमर मुसल मुद्गर पाश वज्र परिघ भुशुंडी शतघ्नी ब्रह्मास्त्र पाशुपतास्त्र आदि महा अस्त्र चक्रायुधाय !

भीषणकर , सहस्त्रमुख दंष्ट्रा करालवदन , विकटाट्टहास , विस्फारित ब्रह्मांडमंडल , नागेंद्र कुंडल , नागेंद्रहार , नागेंद्र वलय , नागेंद्र चर्मधर ,मृत्युंजय, त्र्यंबक ,त्रिपुरांतक , विश्वरुप , विरुपाक्ष , विश्वंभर , विश्वेश्वर , वृषभवाहन , वृषविभूषण , विश्वतोमुख ! सर्वतो मां रक्ष रक्ष , ज्वल ज्वल ,प्रज्वल प्रज्वल , स्फुर स्फुर , आवेशय आवेशय , मम हृदये प्रवेशय प्रवेशय , प्रस्फुर प्रस्फुर !

महामृत्युं अपमृत्युंभयं नाशय नाशय , चोरभयम उत्सादय उत्सादय , विषसर्पभयं शमय शमय , चौरान मारय मारय , मम शत्रून उच्चाटय उच्चाटय , मम क्रोधादि सर्व सूक्ष्मतमात स्थूलतमात स्थूलतम पर्यंत स्थितान शत्रून उच्चाटय उच्चाटय ,त्रिशूलेन विदारय विदारय, कुठारेण भिंधि भिंधि , खडगेन छिंधि छिंधि , खटवांगेन विपोथय विपोथय , मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय , बाणै: संताडय संताडय , रक्षांसि भीषय भीषय ,अशेष भूतानि विद्रावय विद्रावय , कूष्मांड वेताल मारीच गण ब्रह्मराक्षस गणान संत्रासय संत्रासय , सर्वरोगादि महाभयान मम अभयं कुरु कुरु , वित्रस्तं माम आश्वासय आश्वासय , नरक महाभयान माम उद्धार उद्धर , संजीवय संजीवय , क्षुत तृषा ईर्ष्यादि विकारेभ्यो माम आप्यायय आप्यायय ,दु:खातुरं माम आनंदय आनंदय , शिवकवचेन माम आच्छादय आच्छादय !
मृत्युंजय , त्र्यंबक , सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते शं ह्रीं ह्रौं !

रुद्राय नमः
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रविवार, 3 मई 2020

गुरु कौन है

गुरु कौन है

आजकल अज्ञानता की लहर सी फैली हुई है जिसको देखो ज्ञान बघारने लगता है चाहे उसे कोई अनुभव हुआ हो अथवा न हुआ हो । बहुत से लोग किताबें पढ़कर ज्ञान बाँट रहे है आजकल सभी बंधू एक बहुत ही बड़े अज्ञानता में रह रहे है की गुरु केवल मार्ग दर्शक का काम करता है अर्थात वो केवल रास्ता दिखलाता है । या तो उन लोगो की गुरु से भेट नहीं हुई है अथवा वो गुरु का अर्थ नहीं जानते । गुरु शब्द से गुरुत्व का आभास होता है. अर्थात जहां गुरुत्व है वही तो गुरु है गुरुत्व का मतलब आकर्षण है गुरु अपनी ओर आकर्षित करता है क्योंकि उसमे गुरुत्व होता है । गुरु सर्व समर्थ होता है वह कर्तुं अकर्तुम और अन्यथा कर्त्तुम में समर्थ होता है वह अपनी कृपा मात्र से शिष्य के हृदय की मलिनता दूर कर देता है । जिसमे यह समर्थ्य हो वही गुरु है अन्य कोई भी गुरु पद का अधिकारी नहीं है । वह सभी कुछ कर सकता है ।
ऐसे गुरु के लिए ही कहा गया है :-

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

अतः पूर्ण ज्ञानी चेतन्य रूप पुरुष के लिए गुरु शब्द प्रयुक्त होता है, उसकी ही स्तुति की जाती है। नानक देव, त्रेलंग स्वामी, तोतापुरी, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, स्वामी समर्थ, साईं बाबा, महावातर बाबा, लाहडी महाशय, हैडाखान बाबा, सोमबार गिरी महाराज, स्वामी शिवानन्द, आनंदमई माँ, स्वामी बिमलानंदजी, मेहर बाबा आदि सच्चे गुरु रहे हैं।

अतः यह अज्ञान है की केवल रास्ता बताने वाला गुरु होता है केवल रास्ता बताने पर भी यदि शिष्य न चल पाए तो ?

नहीं, गुरु शिष्य को उस रास्ते पर चलने की सामर्थ्य भी देता है । गुरु सर्व समर्थ्यवान है । अतः ईश्वर से प्रार्थना करे की वो आपको ऐसा गुरु प्रदान करे ।

मेरे गुरु ऐसे ही सामर्थ्यवान दादा जी महाराज गोसलपुर वाले (श्री श्री १००८ परमहंस शिवदत्त जी महाराज ) हैं जो अब समाधिस्थ है पर शिष्यों के लिए प्रकट है

नोट :- गोसलपुर मध्यप्रदेश जबलपुर के पास है जो कटनी और जबलपुर के बीच में पड़ता है वहां गुरु जी की समाधी है



शिष्य जब परम प्रकाशरूप प्रभु के दर्शन करता है तो उसके पाप कटते है और वो परमात्मा ज्योति अपनी और आकर्षित करती चली जाती है तब वो ही गुरु बन जाती है और मार्गदर्शन करती है  उसे रूहानी गुरु कहते हैं | 

संतो की हत्या

आज संतो की हत्या इसलिए हो रही है की उनमे त्याग और तपस्या का अभाव है वो लोग केवल वस्त्र और बाहरी चिन्हो को धारण करके ही संत बने हुवे है | इन्होने न तो योग को सिद्ध किया है न ज्ञान को सिद्ध किया है न ही भक्ति में ही इतने दुबे की इष्ट इनकी रक्षा को तत्पर रहे | ऐसे लोग चाहे संतो की वेशभूषा धारण करके रहे चाहे गृहस्थ की वेशभूषा, इनकी पराजय होगी ही | श्री गीता जी में कहा गया है 
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।  
अर्थात जहाँ भगवान हैं वहाँ विजय और ऐश्वर्य रहता ही है 
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है की उन संतो के ह्रदय में भगवन का वास नहीं था अगर होता तो उनकी पराजय नहीं होती | क्योंकि जहाँ  जहाँ भगवान हैं वहाँ विजय होती है पराजय नहीं | 
या तो योगी बनो नहीं तो कृष्ण को मन में बसाओ तभी विजय मिलेगी नहीं तो पराजय ही मिलेगी |   



ये घटनाये सबक है की संत केवल वेशभूषा से ही संत न रहे | भगवान को अपने में प्रकट करे तभी कल्याण होगा और तब मान सम्मान मांगना नहीं पड़ेगा | सभी लोग आपकी दया पाने को लालायित होंगे |