शुक्रवार, 2 जून 2023

साधना_के_दो_खण्ड_ज्ञानखण्ड_शक्तिखण्ड

यह विषय हम सीधे-सीधे कुण्डलिनी साधना से जोड़ रहे है। जो भी व्यक्ति साधनाओं में रूचि रखते हैं। वो आज्ञा चक्र पर दस से बीस मिनट ध्यान करें। ध्यान बढ़ने पर या तो यह स्वत: सहस्त्रार पर जाएगा अथवा संकल्प से ले जाना पडे़गा। सहस्त्रार पर भी बीस मिनट ध्यान करें। इस प्रकार प्रतिदिन कम से कम चालीस मिनट एक बार में ध्यान अवश्य करें। ध्यान और बढ़ने पर यह ऊर्जा सहस्त्रार से पीछे की ओर नीचे गिरेगी व मूलाधार तक पहुंचेगी। इस प्रकार एक बार सातों चक्रो में स्फुरणा प्रारम्भ हो जाएगी। यह साधना का प्रथम सोपान है इसके हम ज्ञान खण्ड की संज्ञा दे रहे है।

इस सोपान में प्रज्ञा बुद्धि व्यक्ति के भीतर विकसित होने लगती है, सत चित्र, आनन्द से उसका सम्पर्क बनने लगता है। भीतर तरह-तरह का ज्ञान विज्ञान स्फुरित होने लगेगा। कभी-कभी किसी चक्र को ऊर्जा अधिक मिलने से उसकी सिद्धि, शक्ति अथवा विकृति का भी सामना करना पड़ेगा। किसी-किसी चक्र में ऊर्जा के भवंर से व्यक्ति को कुछ कठिनार्ईयों का सामना भी करना पड़ेगा। रास्ता बनाने के लिए ऊर्जा जोर मारती है व मीठे-मीठे अथवा कभी तीव्र दर्द का अहसास भी होता है। व्यक्ति अब योगियों की भाँति जीवन जीना पसन्द करता है। साथ-साथ प्रारब्धो का भुगतान भी प्रारम्भ हो जाता है जो कई बार कठोर भी हो सकता है। इस प्रथम सोपान को पार करने में व्यक्ति के अनेक वर्ष लग जाते हैं।
इसमें व्यक्ति अपना सामान्य जीवन जीते हुए साधना कर सकता है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए माह में एक या दो बार सम्भोग भी कर सकता है अपनी नौकरी व भोजन सामान्य रूप से कर सकता है। छोटे-छोटे शक्तिपात से व्यक्ति में यह साधना क्रम प्रारम्भ हो जाता है। यदि व्यक्ति साधना में अधिक समय लगाने लगे व चक्रो में ऊर्जा पर्याप्त मात्रा में आने लगे तो मूलाधार चक्र की ऊर्जा कुण्डलिनी पर तीव्र आघात कर उसे जगा देती हैं। यह कुण्डलिनी आगे से ऊपर की ओर उठती हुयी सहस्त्रार पर जाती है व एक चक्र में ऊर्जा दौड़ती है। अब साधना का दूसरा सोपान प्रारम्भ होता है।
इस सोपान में गम्भीरता व सावधानी पूर्वक प्रवेश करना होता है। व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह पूर्ण ब्रह्मचार्य का पालन करें। उसका अधिक इधर उधर घूमना, व्यर्थ बाते बनाना सब पर प्रतिबन्ध लगने आरम्भ हो जाते हैं। यहाँ तक कि यदि वह किसी दूसरे के बिस्तर पर लेटे तो उसे परेशनी होने लगती है। कई बार सामने वाले गलत व्यक्ति से भी कष्ट अनुभव होता है। इस सोपान में व्यक्ति का तन्त्र बहुत ही सम्वेदनशील हो जाता है।
रामकृष्ण परमहंस जी को अजीबोगरीब स्थिति से हम सभी परिचित हैं। कुछ-कुछ इसी प्रकार के लक्षण साधक में आने लगते है। कभी-कभी साधक के शरीर का कोई भाग बहुत कच्चा प्रतीत होता है।
इस सोपान में घुसते ही साधक कई बार घबरा जाता है कि यह उसके साथ क्या हो रहा है? इस सोपान में व्यक्ति के लिए हानिप्रद होती है। कभी-कभी प्रारब्ध भुगतान से मृत्यु आती नजर आती है अथवा वैसा कष्ट लगता है। इस सोपान में घुसने पर साधक को साधना के नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करना होता है अन्यथा वह बीच में ही शरीर छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएगा। यह नाजुक छोर होता है जिसमें व्यक्ति को चारों ओर से सम्भाल की जरूरत महसूस होती है।
लेकिन इस सोपान में थोड़ा सा आगे बढ़ते ही ऋद्धियाँ सिद्धियाँ देख साधक का मन हर्षित भी हो उठता है। उसको वाक सिद्धि की प्राप्ति होने लगती है। प्रज्ञा के प्रकाश से किसी भी परिस्थिति का आकलन कर सकता है। किसी भी रोगी के लिए यदि वह मृत्युन्जे मन्त्र का जप कर दे तो रोग ठीक होने लगता है। कई बार इतना तक होता है कि व्यक्ति प्रारब्ध वश खुद तो कठिन स्वास्थ्य संकट में फंसा है परन्तु जिसके लिए उसने प्रार्थना कर दी उसका भला हो जाता है। इस सोपान में व्यक्ति साधना की ऊँचाई पर चढ चुका है। जैसे यदि वृक्ष में ऊँचाई से गिर जाए तो मृत्यु की सम्भावना रहती है।
उसी प्रकार यदि इस सोपान में व्यक्ति ने सावधानी न बरती तो वह धडाम से दुखद अन्त की ओर गिर सकता है। अपनी वाणी पर नियन्त्रण, भावना पर नियन्त्रण व वासना का दमन करना होता है। कामदेव के शिव ने भस्मीभूत कर दिया। साधक के भी कठोरता पूर्वक भीतर वासना के संस्कारों को भस्म करना होता है। यद्यपि उसके भीतर उत्पन्न उपलब्धियाँ उसको असामान्य बना रही होती है परन्तु उसे स्वयं को सामान्य रखना होता है। गुड़ की महक से मक्खियाँ भिनभिनाना प्रारम्भ कर देती है। चेहरे पर आयी दिव्य क्रान्ति, उसकी मधुर वाणी, आत्मीय व्यवहार से हर कोई उसकी समीपता चाहता है।
ऐसे व्यक्ति को चाहिए कि भीड़ से बचे व दस बीस पचास अपनी सामर्थ्य अनुसार जिज्ञासुओं की एक मण्डली चयन कर बनाकर उनको साधना के लिए प्रेरित करें। कभी-कभी अपने अनुभवों के असे बाँटे, जिससे उनको भी प्ररेणा मिलें। यदि साधको की छोटी-छोटी समूह तैयार होते रहेंगे। तो सभी की साधना में तीव्रता आएगी। जैसे जूनियर का बच्चा प्राइमरी के बच्चे को सिखा सकता है वैसे ही शक्ति खण्ड में चल रहा साधक प्रथम ज्ञान खण्ड के साधको का मार्गदर्शन कर सकता है।
शक्ति खण्ड में व्यक्ति के प्रारब्ध तो तेजी से कट जाते है परन्तु एक ओर समस्या से उसको जुझना पड़ता है। जैसे ही व्यक्ति शक्ति खण्ड में घुसता है आसुरी शक्तियाँ उसको दबाने के लिए तत्पर हो जाती है व भाँति-भाँति से उसको भ्रमित करती है जिससे वह घबराकर साधना में पीछे हटना प्रारम्भ कर दें। ज्ञान खण्ड में व्यक्ति जीवन में समर्पण लाता है तो शक्ति खण्ड में व्यक्ति आत्मदान के लिए प्रयत्नशील होता है जितनी बढ़िया मनोभूमि आत्मदान की बनती है उतनी अधिक सफलता साधक को मिलती है।
अन्यथा व्यक्ति अंह में फंस योग भ्रष्ट हो सकता है। जैसे ज्ञान खण्ड के सोपान वाले व्यक्ति को कभी-कभी शक्ति, सिद्धि का अनुभव होता है वैसे ही साधना बढ़ने सम्भलने पर शक्ति खण्ड वाले व्यक्ति को आत्म चेतना ब्रह्म चेतना का अनुभव होता है। व्यक्ति के प्रतीत होता है जैसे आज्ञा चक्र सहस्त्रार के आस पास कोई बिन्दु है जो वह है। रात्रि में जब वह सोता है तो उसी बिन्दु पर ध्यान लगाता है उसका शरीर सो रहा होता है परन्तु वह उस बिन्दु पर सचेत होता है बिन्दु पर बने रहकर वह रात भर जप भी कर सकता है।
ये स्थितियाँ बड़ी आनन्दायक होती हैं, परन्तु साथ-साथ पूर्ण पवित्रता की माँग भी करती है। अन्तर बाहर यदि पवित्रता न मिलें तो कष्ट प्रद स्थिति बनते भी देर नहीं लगती। साधक की भावमुखी दशा देख उसके घर परिवार वाले उसे सनकी अथवा पागल भी मानने लग सकते हैं व उसके साथ दुव्र्यवहार भी कर सकते है। क्योंकि उसकी परिपाटी अन्य लोगों की परिपाटी से मेल नहीं खाती। उदाहरण के लिए साधक को शान्त वातावरण चाहिए जबकि अन्य सदस्यों को घूम धड़ाके वाला वातावरण। साधक करुणावश धन वितरित करता है, जरूरत मन्दो की मदद करते हैं, अन्य लोग बैंक बेलेंस बढ़ाना पसन्द करते हैं।
यदि परिवार में लोग समझदार नहीं है साधक को अधिक परेशान करते हैं तो यह सबके लिए खतरनाक भी हो सकता है यदि तालमेल उचित है तो भले ही दूसरे व्यक्ति साधना न करें। परन्तु साधक की सदभावना का लाभ कमा सकते है उसकी साधना से प्रत्यक्ष परोक्ष रूप में लाभान्वित हो सकते है। यदि पति पत्नी में से एक शक्ति खण्ड में प्रवेश कर गया है तो दूसरे को भी बाध्य होकर संयम का पालन करना पड़ेगा, अन्यथा एक या दोनों के जान से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में नियति को स्वीकार कर लें तो ही अच्छा हैं। यह प्रयास न करें कि साधक पीछे हटें। क्योंकि शक्ति खण्ड में पीछे हटना भी बहुत सावधानी से करना पडता है।
पहले तो स्थूल शरीर प्रचण्ड ऊर्जा को सहने का अभ्यासी नहीं था धीरे-धीरे उच्च ऊर्जा के अनुसार स्थूल शरीर का तन्त्र बना। अब यदि उच्च ऊर्जा से फिर निम्न ऊर्जा में आया तो शरीर सह नहीं पाता किसी न किसी अंग में विकृति आने का खतरा बना रहता है। यदि परिवार में सद्भावना हो उचित तालमेल हो तो साधनाक्रम सही चल सकता है। एक व्यक्ति अधिक समय साधना में लगाए व दूसरे उसका सहयोग करें। यदि पति पत्नी दोनों शक्ति खण्ड में प्रवेश कर जाएँ व बच्चे छोटे हो तो भी कठिनाई रहती है उनके पालन पोषण में बाधा आती है। ऐसे में सुंयक्त परिवार हो व सद्भावनापूर्ण हो तभी साधना में प्रगति सम्भव हैं।
अधिकतर साधक साधना के प्रथम सोपान पर ही अटके रहते है आगे नही बढ़ पाते; इसका कारण यह है कि उनकी मनोभूमि उर्वर नहीं होती जिस कारण वो अपने कु:संस्कारों से संघर्ष कर तेजी से आगे नहीं बढ़ पाते यदि हमें दही से मक्खन निकालना हो तो रई को धीरे-धीरे घुमाने से काम नही चलेगा, तीव्र गति से घुमाना ही पड़ेगा ऐसे ही यदि साधना में कुछ उपलब्धि हासिल करनी है तो ढीले-पीले तरीके से काम नही चलता, हमारी समस्या यह होती है कि हम दोनों को पकड़ कर चलते है। साधना भी और वासना भी, यह आधापन छोड़ना ही पडे़गा। साधना करनी है तो पूरी साधना करो,
साधक की साधना धुएँ वाली आग नही धधकती हुई ज्वाला होनी चाहिए अर्थात् साधना जिस किसी तरह न करके उसे तीव्रतम व प्रचण्डतम होना चाहिए, हम एक नदी ऐसी में उलझे हुए है जिसके एक किनारे का नाम संसार है और दूसरे का नाम समाधि है यदि नाव ठीक से चलाई जाए सही ढंग से साधना की जाएँ तो समाधि निश्चित है। इस सन्दर्भ में एक घटना बड़ी मार्मिक है। बनारस में एक सिद्ध पुरुष हुए है जिनका नाम या हरिबाबा, उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा कि मैं बहुत जप-तप करता हूँ, पर सब अकारण जाते हैं।
भगवान् है भी या नहीं मुझे संदेह होने लगा है। हरिबाबा ने इस बात पर जोर का ठहाका लगाया और बोले-चल मेरे साथ आ, थोड़ी देर गंगा में नाव चलायेंगे और तेरे सवाल का जवाब भी मिल जायेगा। बाढ़ से उफनती गंगा में हरिबाबा ने नाव डाल दी। उन्होंने पतवार उठाई पर केवल एक। नाव चलानी हो तो दोनों पतवारें चलानी होती है, पर वह एक ही पतवार से नाव चलाने लगे। नाव गोल-गोल चक्कर काटने लगी। शिष्य तो डरा-पहले तो बाढ़ से उफनती गंगा उस पर से गोल-गोल चक्कर। वह बोला-अरे आप यह क्या कर रहे हैं, ऐसे तो हम उस किनारे कभी भी न पहुँचेंगे। हरिबाबा बोले-तुझे उस किनारे पर शक आता है या नहीं
शिष्य बोला-यह भी कोई बात हुई जब यह किनारा है तो दूसरा भी होगा। आप एक पतवार से नाव चलायेंगे, तो नाव यूँ ही गोल चक्कर काटती रहेगी। यह एक दुष्चक्र बनकर रह जायेगी। हरिबाबा ने दूसरी पतवार उठा ली। अब तो नाव तीर की तरह बढ़ चली। वह बोले-मैं तुझसे भी यही कह रहा हूँ कि तू जो परमात्मा की तरफ जाने की चेष्टा कर रहा है-वह बड़ी आधी-अधूरी है। एक ही पतवार से नाव चलाने की कोशिश हो रही है। आधा मन तेरा इस किनारे पर उलझा है, आधा मन उस किनारे पर जाना चाहता है। तू आधा-आधा है। तू बस यूँ ही कुनकुना सा है। जबकि साधना में साधक की जिन्दगी खौलती हुई होनी चाहिए।

सर्वशत्रु बाधा व भुत प्रेत विनाशक बगला प्रत्यंगिरा कवच

ॐ अस्य श्री बगला प्रत्यंगिरा मंत्रस्य नारद ऋषि स्त्रिष्टुप छन्द प्रत्यंगिरा देवता ह्ल्रीं बीज हुं शक्तिः ह्रीं कीलकं ह्लीं ह्लीं ह्लीं ह्लीं प्रत्यंगिरा मम् शत्रु विनाशे जपे विनियोगः |


मंन्त्र--ॐ प्रत्यंगिरायै नमः प्रत्यंगिरे सकल कामान्  साध्य मम् रक्षां कुरू कुरू सर्वान शत्रुन खादय खादय् मारय मारय घातय घातय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा 


ॐ भ्रामरी स्तम्भिनी देवी  क्षोभिणी मोहनी तथा संहारिणी द्राविणी च जृम्भणी रौद्ररूपिणी इत्यष्टौ शक्तयो देवि शत्रुपक्षे नियोजताः धारयेत् कण्ठदेशे च सर्व शत्रु विनाशनी


ॐ ह्रीं भ्रामरी सर्व शत्रुन भ्रामय भ्रामय ॐ ह्री स्वाहा 

ॐ ह्रीं स्तम्भिनी मम् शत्रुन स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्री स्वाहा

ॐ ह्रीं क्षोभिणी मम शत्रु क्षोभय क्षोभय ॐ ह्रीं स्वाहा

ॐ ह्रीं मोहिनी मम् शत्रुन मोहय मोहयॐ ह्रीं स्वाहा

ॐ ह्रीं सहांरिणी मम शत्रुन संहारय संहारय ॐ ह्रीं स्वाहा

ॐ ह्रीं द्रावणी मम शत्रुन द्रावय द्रावय ॐ ह्रीं स्वाहा

ॐ ह्रीं जृम्भिणी मम शत्रुन जृम्भय जृम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा

ॐ ह्रीं रौद्रि मम शत्रुन सन्तापय  सन्तापय ॐ ह्रीं स्वाहा

दारिद्र्य नाशक धूमावती साधना

जीवन में कई बार ऐसे पल आ जाते है की हम निराश हो जाते है,अपनी गरीबी से अपनी तकलीफों से,और इस बात को नहीं नाकारा जा सकता की हर इन्सान को धन की आवश्यकता होती है जीवन के ९९ % काम धन के आभाव में अधूरे है यहाँ तक की साधना करने के लिए भी धन लगता है, तो क्यों और कब तक बैठे रहोगे इस गरीबी का रोना लेकर क्यों ना इसे उठा कर फेक दिया जाये जीवन से |

मेरे सभी प्यारे भाइयो और बहनों के लिए एक विशेष साधना दे रहा हु जिससे उनके आर्थिक कष्ट माँ की कृपा से समाप्त हो जायेंगे |ये मेरी अनुभूत साधना है आप संपन्न करे और माँ की कृपा के पात्र बने |

साधना सामग्री. एक सूपड़ा,स्फटिक या तुलसी माला |

विधि: यह साधना धूमावती जयंती से आरम्भ करे,समय रात्रि १० बजे का होगा, आप सफ़ेद वस्त्र धारण कर सफ़ेद आसन पर पूर्व मुख कर बैठ जाये. सामने बजोट पर सूपड़ा रख कर उसमे सफ़ेद वस्त्र बिछा दे फिर उसमे धूमावती यन्त्र स्थापित करे,इसके बाद गाय के कंडे से बनी भस्म यन्त्र पर अर्पण करे घी का दीपक जलाये,पेठे का भोग अर्पण करे, माँ से प्रार्थना करे की में यह साधना अपनी दरिद्रता से मुक्ति के लिए कर रहा हु आप मेरी साधना को सफलता प्रदान करे तथा मेरे सभी कष्टों को दूर कर दे.

इसके बाद निम्न मंत्र की एक माला करे " ॐ धूम्र शिवाय नमः "

इसके बाद " धूं धूं धूमावती ठह ठह " की २१ माला करे.

फिर पुनः एक माला " ॐ धूम्र शिवाय नमः " मंत्र की करे.

जप के बाद दिल से माँ से प्रार्थना करे और इस साधना को २१ दिन तक करे. साधना पूरी होने के बाद सुपडे को यन्त्र सहित उठाकर माँ से प्रार्थना करे की माँ आप हमारी सभी पापो को क्षमा करे और आज आप हमारे जीवन के सारे दुःख सारी दरिद्रता को आपके इस पवित्र सुपडे में भर के ले जाये है माँ हमारे जीवन में कभी दरिद्रता ना लोटे ऐसी दया करे. इसके बाद सुपडे और यन्त्र को जल में प्रवाहित कर दे या किसी निर्जन स्थान में रख दे. निश्चित माँ की आप पर कृपा बरसेगी और जीवन की दरिद्रता कोसो दूर चली जाएगी

त्रिपुर भैरवी साधना

दस महाविद्याओ में छठवें स्थान पर विद्यमान त्रिपुर-भैरवी, संहार तथा विध्वंस की पूर्ण शक्ति है। त्रिपुर शब्द का अर्थ है, तीनो लोक “स्वर्ग, विश्व और पाताल” और भैरवी विनाश के एक सिद्धांत के रूप में अवस्थित हें, तात्पर्य है तीन लोको में सर्व नष्ट या विध्वंस कि जो शक्ति है, वह भैरवी है।

देवी त्रिपुर भैरवी का घनिष्ठ सम्बन्ध ‘काल भैरव’ से है, जो जीवित तथा मृत मानवो को अपने दुष्कर्मो के अनुसार दंड देते है तथा अत्यंत भयानक स्वरूप वाले तथा उग्र स्वाभाव वाले हैं। काल भैरव, स्वयं भगवान शिव के ऐसे अवतार है, जिन का घनिष्ठ सम्बन्ध विनाश से है तथा ये याम राज के भी अत्यंत निकट हैं, जीवात्मा को अपने दुष्कर्मो का दंड इन्हीं के द्वारा दी जाती हैं।

इनके ध्यान का उल्लेख दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध के प्रसंग में हुआ है। इनका रंग लाल है। ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुंडमाला धारण करती हैं और शरीर पर रक्त चंदन का लेप करती हैं। ये अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। ये कमलासन पर विराजमान हैं। भगवती त्रिपुरभैरवी ने ही मधुपान करके महिषका हृदय विदीर्ण किया था। रुद्रयामल एवं भैरवी कुल सर्वस्व में इनकी उपासना करने का विधान है।

इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का दृढ़ निर्णय लिया था। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्या को देखकर दंग रह गए। इससे सिद्ध होता है कि भगवान शंकर की उपासना में निरत उमा का दृ़ढ़निश्चयी स्वरूप ही त्रिपुरभैरवी का परिचालक है। त्रिपुरभैरवी की स्तुति में कहा गया है कि भैरवी सूक्ष्म वाक् तथा जगत में मूल कारण की अधिष्ठात्री हैं।

त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं। यह बंदीछोड़ माता है। भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं।

माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।

जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है। षोडशी का भक्त कभी दुखी नहीं रहता है।

प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं। पहला:- सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, कमला), दूसरा:- उग्र कोटि (काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी), तीसरा:- सौम्य-उग्र कोटि (तारा और त्रिपुर भैरवी)।

माँ त्रिपुर भैरवी के अन्य तेरह स्वरुप हैं इनका हर रुप अपने आप अन्यतम है। माता के किसी भी स्वरुप की साधना साधक को सार्थक कर देती है। माँ त्रिपुर भैरवी कंठ में मुंड माला धारण किये हुए हैं। माँ ने अपने हाथों में माला धारण कर रखी है। माँ स्वयं साधनामय हैं उन्होंने अभय और वर मुद्रा धारण कर रखी है जो सदैव अपने भक्तों को सौभाग्य प्रदान करती है। माँ ने लाल वस्त्र धारण कियए है, माँ के हाथ में विद्या तत्व है। माँ त्रिपुर भैरवी की पूजा में लाल रंग का उपयोग करने से माता अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाती है।माँ त्रिपुर भैरवी बीज मंत्र

माँ त्रिपुर भैरवी के बीज मंत्रों का जप करने से एक साथ अनेक संकटों से मुक्ति मिल जाती है। इन मंत्रों का जप करने वाला अत्यधिक धन का स्वामी बनकर जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य का अधिकारी बन जाता है।

भैरवी काम उत्पीड़न से बचने का सांसारिक व प्रायोगिक है। वह है शिव एवं शक्ति को अपने जीवन में समान महत्व देना, उनकी उपासना एवं त्रिपुर भैरवी की अराधना। इस भैरवी उत्पीड़न से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है श्री त्रिपुर भैरवी की तांत्रोक्त अराधना एवं भैरव्यास्त्र।

साधक व त्रिपुरा सुंन्दरी के बीच उनकी रथवाहिका के रूप में रास्ता रोके खड़ीं होती हैं श्री त्रिपुर भैरवी। जिस की सन्तुष्टि पूजन साधना से ही रास्ता सुगम है जाता है।

माँ त्रिपुर भैरवी के स्वरूप शास्त्रों में माँ भैरवी के विभिन्न स्वरूप होते हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी एवं षटकुटा भैरवी आदि।

देवी भागवत के अनुसार महाकाली के उग्र और सौम्य दो रुपों में अनेक रुप धारण करने वाली दस महा-विद्याएं है। माँ का स्वरूप सृष्टि के निर्माण और संहार क्रम को जारी रखे हुए है। माँ त्रिपुर भैरवी तमोगुण एवं रजोगुण से परिपूर्ण हैं।

महाविद्या त्रिपुरा भैरवी की साधना नवरात्रि या शुक्ल पक्ष के बुधवार या शुक्रवार के दिन से शुरू कर सकते हैं !समय रात्रि नौ बजे के बाद कर सकते हैं !माँ त्रिपुर भैरवी साधना पूजा विधि साधक को स्नान करके शुद्ध लाल वस्त्र धारण करके अपने घर में किसी एकान्त स्थान या पूजा कक्ष में पूर्व दिशा की तरफ़ मुख करके लाल ऊनी आसन पर बैठ जाए !उसके बाद अपने सामने चौकी रखकर उस पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर भगवान शिव यंत्र स्थापित करें ! फिर प्लेट रखकर रोली से त्रिकोण बनाये उस त्रिकोण में पर के ऊपर सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त “त्रिपुरा भैरवी यंत्र” को स्थापित करें !

उसके बाद यन्त्र के सामने शुद्ध घी का दीपक जलाकर यंत्र का पूजन करें । तुम्हारे एवं त्रिपूरा सुन्दरी के बीच उनकी रथवाहिका के रूप में रास्ता रोके खड़ीं हैं।त्रिपुर भैरवी यंत्र पर मंत्र पढ़ते हुए कुछ लाल पुष्प विषेशकर गुलाब के फूल चढ़ाये।भैरवी से मुक्ति का रास्ता मिल जाएगा। सुगन्धित इत्र बेला, गुलाब या चमेली का भी साथ में चढ़ाये। और मन्त्र विधान अनुसार संकल्प आदि कर सीधे हाथ में जल लेकर

विनियोग पढ़े :  अस्य श्री त्रिपुर भैरवी मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषि: पंक्तिश्छ्न्द: त्रिपुर भैरवी देवता वाग्भवो बीजं शक्ति बीजं शक्ति: कामराज कीलकं श्रीत्रिपुरभैरवी प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:

ऋष्यादि न्यास : बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की समूहबद्ध, पांचों उंगलियों से नीचे दिए गये निम्न मंत्रो का उच्चारण करते हुए अपने भिन्न भिन्न अंगों को स्पर्श करें.

मंत्र :

दक्षिणामूर्तये ऋषये नम: शिरसि ( सर को स्पर्श करें )पंक्तिच्छ्न्दे नम: मुखे ( मुख को स्पर्श करें )श्रीत्रिपुरभैरवीदेवतायै नम: ह्रदये ( ह्रदय को स्पर्श करें )वाग्भवबीजाय नम: गुहे ( गुप्तांग को स्पर्श करें )शक्तिबीजशक्तये नम: पादयो: ( दोनों पैरों को स्पर्श करें )कामराजकीलकाय नम: नाभौ ( नाभि को स्पर्श करें )विनियोगाय नम: सर्वांगे ( पूरे शरीर को स्पर्श करें )

कर न्यास : अपने दोनों हाथों के अंगूठे से अपने हाथ की विभिन्न उंगलियों को स्पर्श करें, ऐसा करने से उंगलियों में चेतना प्राप्त होती है।

हस्त्रां अंगुष्ठाभ्यां नम: । ह्स्त्रीं तर्जनीभ्यां नम: । ह्स्त्रूं मध्यमाभ्यां नम: । हस्त्रैं अनामिकाभ्यां नम: । ह्स्त्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नम: । हस्त्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: ।

ह्र्दयादि न्यास : पुन: बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की समूहबद्ध, पांचों उंगलियों से नीचे दिए गये निम्न मंत्रों के साथ शरीर के विभिन्न अंगों को स्पर्श करते हुए ऐसी भावना मन में रखें कि वे सभी अंग तेजस्वी और पवित्र होते जा रहे हैं ! ऐसा करने से आपके अंग शक्तिशाली बनेंगे और आपमें चेतना प्राप्त होती है

न्यास करें : हस्त्रां ह्रदयाय नम: । हस्त्रां शिरसे स्वाहा । ह्स्त्रूं शिखायै वषट् । हस्त्रां कवचाय हुम् । ह्स्त्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । हस्त्र: अस्त्राय फट् ।

त्रिपुर भैरवी ध्यान इसके बाद दोनों हाथ जोड़कर माँ भगवती त्रिपुर भैरवी का ध्यान करके पूजन करें। धुप, दीप, चावल, पुष्प से ।

इसके बाद दोनों हाथ जोड़कर माँ भगवती त्रिपुर भैरवी का ध्यान करके, त्रिपुर भैरवी माँ का पूजन करे धुप, दीप, चावल, पुष्प से तदनन्तर त्रिपुर भैरवी महाविद्या का पूजा करें

ध्यान

उधदभानुसहस्त्रकान्तिमरूणक्षौमां शिरोमालिकां,रक्तालिप्रपयोधरां जपवटी विद्यामभीतिं परम् ।हस्ताब्जैर्दधतीं भिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं,

देवी बद्धहिमांशुरत्नस्त्रकुटां वन्दे समन्दस्मिताम् ।।तांत्रोक्त श्री त्रिपुर भैरवी ध्यान हं हं हं हंस हंसी स्मित कह कह चामुक्त घोर अट्टहासा।

खं खं खं खड्गहस्ते त्रिभुवन निलये कालभैरवी कालधारी।।रं रं रं रंगरंगी प्रमुदित वदने पिर्घैंकेषी श्मशाने।यं रं लं तापनीये भ्रकुटि घट घटाटोप, टंकार जापे।।हं हं हंकारनादं नर पिषितमुखी संधिनी साध्रदेवी।ह्रीं ह्रीं ह्रीं कुष्माण्ड मुण्डी वर वर ज्वालिनी पिंगकेषी कृषांगी।।

खं खं खं भूत नाथे किलि किलि किलिके एहि एहि प्रचण्डे। ह्रुम ह्रुम ह्रुम भूतनाथे सुर गण नमिते मातरम्बे नमस्ते।।भां भां भां भावैर्भय हन हनितं भुक्ति मुक्ति प्रदात्री।भीं भीं भीं भीमकाक्षिर्गुण गुणित गुहावास भोगी सभोगी।।भूं भूं भूं भूमिकम्पे प्रलय च निरते तारयन्तं स्व नेत्रे।भें भें भें भेदनीये हरतु मम भयं भैरव्ये त्वां नमस्ते।।हां हां हाकिनी स्वरूपिणी भैरवी क्षेत्रपालिनी।कां कां कां कानिनी स्वरूपा भैरवी व्याधिनाशिनी।।रां रां रां राकिनी स्वरूपा भैरवी शत्रुमर्द्दिनी।लां लां लां लाकिनी स्वरूपा भैरवी दुःख दारिद्रनाषिनी।।भैं भैं भैं भ्रदकालिके क्रूर ग्रह बाधा निवारिणी।फ्रैं फ्रैं फ्रैं नवनाथात्मिके गूढ़ ज्ञानप्रदायिनि।।ईं ईं ईं रूद्रभैरवी स्वरूपा रूद्रग्रंथिभेदिनि।उं उं उं विश्णुवामांगे स्थिता विष्णु ग्रंथि भेदिनी।च्लूं च्लूं च्लूं नीलपताके सर्वसिद्धि प्रदायिनी ।अं अं अं अंतरिक्षे सर्वदानव ग्रह बंधिनी।।स्त्रां स्त्रां स्त्रां सप्तकोटि स्वरूपा आदिव्याधि त्रोटिनी।क्रों क्रों क्रों कुरूकुल्ले दुष्ट प्रयोगान नाशिनी।।ह्रीं ह्रीं ह्रीं अंबिके भोग मोक्ष प्रदायिनी।क्लीं क्लीं क्लीं कामुके कामसिद्धि दायिनी।।

ऊपर दिया गया पूजन सम्पन्न करके सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित “मूंगा’ माला” की माला से नीचे दिए गये मंत्र की 23 माला 11 दिनों या 63 माला 21 दिन तक जप करें ! और मंत्र उच्चारण करने के बाद त्रिपुर भैरवी का मंत्र जप मंत्र सिद्ध भैरवी माला से करें

माँ त्रिपुर भैरवी साधना सिद्धि मन्त्र 

॥ ह सें ह स क रीं ह सें ॥या॥ ॐ हसरीं त्रिपुर भैरव्यै नम: ॥त्रिपुर भैरवी का मंत्र मुंगे की माला से पंद्रह माला ‘ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:’

मंत्र का जाप कर सकते हैं। 

माँ त्रिपुर भैरवी बीज मंत्र माँ त्रिपुर भैरवी के बीज मंत्रों का जप करने से एक साथ अनेक संकटों से मुक्ति मिल जाती है। इन मंत्रों का जप करने वाला अत्यधिक धन का स्वामी बनकर जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य का अधिकारी बन जाता है। साथ ही मनोवांछित वर या कन्या को जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करता है।

1- ।। ह्रीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:।। 2- ।। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः।। 3- ।। ॐ ह्रीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै नमो नम:।।

साधना विधान:  गणेश,गुरु,शिव पुजन भी नित्य किया करें। यह साधना 9 दिन की है और मंत्र जाप रुद्राक्ष माला से करें। यह साधना किसी भी नवरात्रि मे कर सकते है। आसन-वस्त्र लाल रंग के हो और उत्तर दिशा के तरफ मुख करके मंत्र जाप करें। मंत्र जाप से पुर्व अपनी कोई भी 3 इच्छाएं पुर्ण होने हेतु देवि से प्रार्थना करें। नित्य कम से कम 15 माला मंत्र जाप करें। साधक अपने गुरु से त्रिपुर भैरवी दीक्षा प्राप्त कर सकता है तो अवश्य ही येसा करने पर उसे पुर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है। इस साधना से सभी मनोकामनाए पुर्ण होती है।

9 दिन के बाद जब साधना पुर्ण हो जाये तब हवन के समय एक अनार का बलि देना जरुरी है। 

साधना पूरी होने के बाद मन्त्रों का जाप करने के बाद दिए गये मन्त्र जिसका आपने जाप किया हैं उस मन्त्र का दशांश ( 10% भाग ) हवन अवश्य करें ! हवन में कमल गट्टे, कलम पुष्प, शुद्ध घी व् हवन सामग्री को मिलाकर आहुति दें ! हवन के बाद त्रिपुर भैरवी यंत्र को अपने घर के मंदिर या तिजोरी में लाल वस्त्र से बांधकर एक साल के लिए रख दें . और बाकि बची हुई पूजा सामग्री को नदी या किसी पीपल के नीचे विसर्जन कर आयें ! ऐसा करने से साधक की साधना पूर्ण हो जाती हैं ! और साधक के ऊपर माँ त्रिपुर भैरवी देवी की कृपा सदैव बनी रही हैं ! त्रिपुरा भैरवी मंत्र हवन यज्ञ तर्पण मार्जन साधना करने से साधक के जीवन में धन, धान्य और यश प्रदान करती है ! और साधक के जीवन की दरिद्रता समाप्त हो जाती है!

त्रिपुर भैरवी का शाबर मंत्र  ।। ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती !