मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग

मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग
१॰ ऐश्वर्य प्राप्ति
‘माता सीता की स्तुति’ का नित्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करें।
“उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ५)”
अर्थः- उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करने वाली श्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्रीसीता को मैं नमस्कार करता हूँ।।
२॰ दुःख-नाश
‘भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ६)
अर्थः- सारा विश्व जिनकी माया के वश में है और ब्रह्मादि देवता एवं असुर भी जिनकी माया के वश-वर्ती हैं। यह सब सत्य जगत् जिनकी सत्ता से ही भासमान है, जैसे कि रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। भव-सागर के तरने की इच्छा करनेवालों के लिये जिनके चरण निश्चय ही एक-मात्र प्लव-रुप हैं, जो सम्पूर्ण कारणों से परे हैं, उन समर्थ, दुःख हरने वाले, श्रीराम है नाम जिनका, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।
३॰ सर्व-रक्षा
‘भगवान् शिव की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट,
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः
सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰१)
अर्थः- जिनकी गोद में हिमाचल-सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहार-कर्त्ता, सर्व-व्यापक, कल्याण-रुप, चन्द्रमा के समान शुभ्र-वर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।
४॰ सुखमय पारिवारिक जीवन
‘श्रीसीता जी के सहित भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम,
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰ ३)
अर्थः- नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम-भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।
५॰ सर्वोच्च पद प्राप्ति
श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
छंदः-
“नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड)
‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति के सामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।
६॰ प्रतियोगिता में सफलता-प्राप्ति
श्री सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा श्रीराम-स्तुति का नित्य पाठ करें।
“श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥१॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥२॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥३॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥४॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥५॥
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥६॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥७॥” (अरण्यकाण्ड)
विशेषः
“संशय-सर्प-ग्रसन-उरगादः, शमन-सुकर्कश-तर्क-विषादः।
भव-भञ्जन रञ्जन-सुर-यूथः, त्रातु सदा मे कृपा-वरुथः।।”
उपर्युक्त श्लोक अमोघ फल-दाता है। किसी भी प्रतियोगिता के साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित है।
७॰ सर्व अभिलाषा-पूर्ति
‘श्रीहनुमान जी कि स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।” (सुन्दरकाण्ड, श्लो॰३)
८॰ सर्व-संकट-निवारण
‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।
॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकार का शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकर ‘नाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

सोमवार, 13 जनवरी 2014

श्री नारायण कवच

श्री नारायण कवच 
न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें।

अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः — जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः — ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः — उदरे ( दाहिने हाथ की तर्जनी तथा अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करे )
ॐ रां नमः — हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः – उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करे )
ॐ णां नमः — मुखे ( तर्जनी – अँगुठे के संयोग से मुख का स्पर्श करे )
ॐ यं नमः — शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )


कर-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —-दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ मों नमः —दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ भं नमः —-दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ गं नमः —-वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वां नमः —वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )

विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी – मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः ————-मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे से शिखा का स्पर्श करे )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —————सर्वसन्धिषु ( तर्जनी – मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों — जैसे – कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् –आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् — दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — उदीच्याम्( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )
श्री हरिः
अथ श्रीनारायणकवच
।।राजोवाच।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२
राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।।१-२

।।श्रीशुक उवाच।।

वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३

विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।४
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।

पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६
विश्वरूप ने कहा – देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से “ॐ नमो नारायणाय” और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करे ।।४-६

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु।।७
तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७

न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०
फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०

आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ।।११
इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२
भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३
मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५
अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६

सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०

देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४
कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् २६
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६

यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ।।३१
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०


।।श्रीशुक उवाच।।


य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ।।४२
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42

।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )

साबर मोहनी जाल



साबर तंत्र में इस साधना को मोहनी जाल के नाम से जाना जाता है | इसका प्रयोग कभी विफल नहीं जाता !इस से जहाँ अपने उच्च अधिकारी को अपने अनुकूल बना सकते है | वही अपने आस पास के वातावरण को अपने विरोध होने से रोक सकते है | अपनी झगड़ालू पत्नी जा पति को भी अपने वश में कर उसे अनुकूलता दे सकते है | कई लोग इस प्रयोग का गलत इस्तेमाल कर लेते है | उन्हें जही कहता हू कोई भी ऐसा कार्य ना करे जो समाजिक दृष्टि से अनुकूल ना हो | सिर्फ आवश्कता पड़ने पर ही यह प्रयोग करे मुझे कई सवाल आये वशिकर्ण वारे पर मैं ज्यादा करके टाल देता हू | जहा भी यह प्रयोग जिज्ञाशा के लिए दे रहा हू | इस
लिए इसे सद्कार्य हेतु इस्तेमाल करे नहीं तो शक्ति कई वार विपरीत स्थिति भी पैदा कर देती है | मैंने
काफी समय पहले साबर शिव तंत्र पड़ा था | उस में यह प्रयोग दिया था | इसे अनुभूत किया यह घर से भी साध्य व्यक्ति को भी बुला लेता है | ऐसा परखा हुआ है | मोहनी जाळ फेकना आसन है, मगर उठाना उतना ही मुश्किल इस लिए इसे इस्तेमाल करने से पहले पुनः सोच विचार कर ले | इस का प्रयोग
अति शक्तिशाली है | इस से अपने प्रतिबंधिओ को अपने अनुकूल कर मन चाहा कार्य संपन करा सकते है | यह
प्रयोग पहली वार आपके समक्ष ला रहा हू |

साधना विधि --
१. इसे लाल वस्त्र धारण कर करना चाहिए |
२. आसन कुषा का जा कबल का ले सकते है |
३. दिशा उतर रहेगी |
४. मन्त्र जाप पाँच माला करना है | इस के लिए लाल चन्दन जा कुंकुम की माला जा काले हकीक की माला इस्तेमाल कर सकते है |
५ तेल का दीपक साधना काल में जलता रहेगा जब तक आप मन्त्र जाप करते है | दीपक में तिल का तेल इस्तेमाल करे तो जयादा उचित है |
६. सोलह किस्म का सिंगार ले आये उसे वेजोट पे लाल वस्त्र विछा के उस पर रख दे और सात किस्म की मिठाई भी रख दे इस के इलावा छोटी इलाची और एक शीशी इतर पास रखे और एक मीठा पान का बीड़ा रख
दे |
७. साधना के बाद छोटी इलाची और इतर को छोड़ कर शेष समग्री किसी निर्जन स्थान पे उसी लाल वस्त्र में बांध कर छोड़ दे अथवा नदी में प्रवाहित करदे |
८. वशीकरन के लिए एक इलाची ७ वार यह मन्त्र पढ़ किसी को खिला दे |
९. जब आप किसी अधिकारी से मिलने जा रहे हो जो आपका कार्य नहीं कर रहा तो थोरा इतर लगा के चले जाये वोह आपकी बात जरुर सुनेगा |
१०. इसे २१ दिन करना है और मन शुद रखे |
११. सारी समग्री लाल वस्त्र पे रख के उस में तेल का दिया किसी पात्र में रख कर लगा दे और मन्त्र जाप शुरू करने से पहले गणेश पूजन गुरु पूजन और श्री भैरव पूजन अनिवर्य है |
१२. उस दिये पे एक मिटी के पात्र पर थोरा घी लगा के दिये से थोरा उचा रख सकते है | काजल उतरने के लिए !उस काजल से तीव्र संमोहन होता है | उसे आँखों में लगा के जिसे भी देखेगे समोहित हो जायेगा ! साधना करते वक़्त ख्याल रखे कई वार मोहिनी भयानक रूप में साहमने आ जाती है | जिस के काले वस्त्र होते है और रंग
काला होता है | होठो पे ढेर सारी सुर्खी लगी होती है | आंखे बिजली की तरह चमक रही होती है | ऐसी हालत में डरे न नहीं तो मेहनत बेकार हो जाती है | और ना ही उसकी आंखो में देखने का प्रयत्न करे नहीं तो आप समोहित हो जाएगे और साधना रुक जाएगी बहुत धार्य से काम ले जब तक वोह वर मांगने को न कहे तब तक बोले न सिर्फ अपने मंत्र जप पे ध्यान दे | जब आपका बचन हो जाए तो उसे कहे के जब भी मैं आपको याद कर इस मंत्र का जप कर जिसे समोहित करना चाहु कर सकु आप ऐसा वर दे इस से समोहन की शक्ति आपको दे देगी उसे सिंगार मिठाई पान आदि प्रदान करे वोह खुश हो कर आपको सकल स्मोहन का बचन दे देगी अगर ऐसा न भी हो तो भी मंत्र सिद्ध हो जाता है और कार्य करने लगता है | ऐसा सिर्फ इस लिए लिखा है के मेरा ऐसा अनुभव है | जो मैं समझता हु किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है | पर अक्सर मंत्र सिद्ध हो जाता है और कार्य
करने लगता है | साधना के बाद आप इसके प्रयोग की पुष्टि कर सकते है | भूल कर भी गलत कार्यओ में इसका इस्तेमाल न करे इस का कई वार विपरीत परिणाम भी भुगतना पै सकता है |

साबर मंत्र
मोहिनी मोहिनी मैं करा मोहिनी मेरा नाम | राजा मोहा प्रजा मोहा मोहा शहर ग्राम ||
त्रिंजन बैठी नार मोहा चोंके बैठी को | स्तर बहतर जिस गली मैं जावा सौ मित्र सौ वैरी को ||
वाजे मन्त्र फुरे वाचा | देखा महा मोहिनी तेरे इल्म का तमाशा ||