रविवार, 28 जुलाई 2013

सुख प्राप्ति के लिए त्याग जरूरी

एक बार की बात है, भक्त श्रेष्ठ प्रह्लाद जी अपने कुछ मंत्रियों के साथ प्रजा की सही स्थिति जानने के लिए, उनके दुख-दर्दों को समझने के लिए राज्य में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वह कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। एकाएक उनकी दृष्टि एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी, जिसका सारा शरीर धूल-धूसरित तथा भोगी मनुष्यों की तरह हृष्ट-पुष्ट था।

उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह कोई ऋषि मुनि या अवधूत है। किंतु भक्तराज प्रह्लाद की दृष्टि से यह बात छिपी न रही। उन्होंने पहचान लिया कि वे मुनि दत्तोत्रय हैं। मुनि के निकट जाकर प्रह्लाद जी ने उनके बारे में जानने की इच्छा से प्रश्न किया कि भगवान! आपका शरीर विद्वान, चतुर तथा समर्थ है।

ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है? यदि हमारे सुनने योग्य हो तो अपने बारे में हमें अवश्य बतलाइये। मुनि दत्तात्रेय जी ने कहा- दैत्यराज! मैंने अपने अनुभव से जैसा भी, जो कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देता हूं। तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती।

उसी के कारण मनुष्य को जन्म मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला। कर्मों के कारण अनेक योनियों में भटकते हुए मुझे प्रभु कृपा से मनुष्य योनि मिली है। यह मनुष्य योनि स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की प्राप्ति का भी द्वार है।

इस शरीर को पाकर मनुष्य पुण्य करे तो स्वर्ग, पाप करे तो पशु-पक्षी आदि की योनियों तथा पाप और पुण्य दोनों से अलग होकर निष्काम कर्म करे तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।परंतु मैं इस संसार में देखता हूं कि सारे लोग कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति के लिए, दु:खों से छुटकारा पाने के लिए, परंतु उसका फल उल्टा ही होता है और वे दु:खों में पड़ जाते हैं। इसीलिए मैं कर्मों से उपरत हो गया हूं।

मनुष्य की आत्मा ही सुखस्वरूप है। मनुष्य का शरीर ही उसके प्रकाशित होने का स्थान है, और उसके सारे कर्मों से निवृत्त हो जाता है। छुटकारा पा जाता है और यही मोक्ष है। इसलिए संसार के सभी भोगों को मन का विलास समझ कर वह अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता है।

मनुष्य अपने सच्चे परमार्थ, यानी वास्तविक स्वरूप को, जो कि अपना ही स्वरूप है, भूलकर इस संसार को सत्य मानता हुआ अत्यंत भयंकर और विचित्र जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर, जल के लिए मृगतृष्णा की भांति दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझने वाला पुरुष आत्मा को छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है।

यह शरीर तो प्रारब्ध के अधीन है। कर्मों के द्वारा जो अपने लिए सुख पाना और दुःखों को मिटाना चाहता है। वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। मनुष्य सदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखों से परेशान ही रहता है। यह मरणशील मनुष्य यदि बड़े श्रम और कष्टों से कुछ धन और भोग प्राप्त भी कर लिया तो उससे क्या होने वाला है।

लोभी और इंद्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुख तो मैं देखता ही रहता हूं। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका संदेह बना रहता है। इसलिए बुद्घिमान पुरुष को चाहिए कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग आदि का शिकार होना पड़ता है, उन सबको त्याग दे, क्योंकि त्याग से ही सुख प्राप्त होता है।

मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्टों से धन का संचय करते हैं, परंतु कोई उस धनराशि के स्वामी को मारकर उससे धन छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय भोगों से विरक्त ही रहना चाहिए।

सत्य की खोज करने वाले मनुष्य को चाहिए कि मन के नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों को आत्मानुभूति में स्वाह कर दे, आत्मा में स्वाहा कर दें और इस प्रकार आत्म-स्वरूप में स्थित होकर सांसारिक भोगों से निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय। तब वह स्वत: ही सुख स्वरूप हो जायेगा।

प्रह्लाद जी मुनि दत्तात्रेय से धर्म के इन गूढ़ रहस्यों को समझ कर बड़े प्रेम से मुनि की पूजा की और उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया।

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