को उसके हवाले कर दिया। अब काल नहीं चाह्ता कि कोई भी जीव
उसके चंगुल से निकल कर परमात्मा से वापिस मिलाप कर सके।
इसीलिए उसने मन को सभी जीवों के पीछे लगा रखा है। जीव को काबू में
रखने के लिए मन के पाँच हथियार हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और
अहंकार। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार अंतश्चतुष्ट्य में क्रमशः मन,
बुद्धि, चित्त और अहंकार आते हैं। ‘अहं’ मन, बुद्धि और चित्त से ऊपर
है। फिर उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। जैनदर्शन मन को नियंत्रित
कर इंद्रियों को जीतने की बात करता है। यानी मन रूपी अरि का हनन
की आध्यात्मिक दृष्टि में अरिहंत कहा गया। बौद्धदर्शन बुद्धि के
अस्तित्व को श्रेष्ठता प्रदान कर नित्यानित्य का भेद करने वाले विवेक
से काम लेता है, बुद्धि से ही बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्क्त हो सकते हैं। ये
दोनों दर्शन कर्मसिद्धांत के आधार पर क्रमशः मन-बुद्धि पर नियंत्रण को
तत्वज्ञान मानते हैं, जबकि योग दर्शन चित्त पर अंकुश लगाता है।
‘‘योगश्चित्तवृत्तिः निरोधः’’ चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण की योग है। यहां
भी कर्म सिद्धांत ही है- ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्।’’ चौथा निर्गुण तत्व
अहंकार है। जिस पर सभी दर्शन मन, बुद्धि और चित्त से अलग सोच न
रखकर सिर्फ अहंकार से आच्छादित मन को जीतने में विश्वास रखते हैं,
यदि मन से अहं निकल जाये तो समझो हम जीत गये। इसी तरह बुद्धि
और चित्त से अहं को मिटाकर निरहंकार कर्म की कुशलता का पाठ
पढ़ाया जाता है। क्या अहंकार मिट सकता है? मन बुद्धि चित्त जितने
महत्वपूर्ण हैं। उतना ही महत्वपूर्ण अहं है। अहं यानी मैं जब तक ‘नाम-
रूप’ यानी देह है, तब तक अहं के तत्व को नहीं समझा जा सकता। मैं देह
नहीं, देही हूं। आत्मतत्व में अहं का एकात्म ही अहंकार का मूलतत्व है।
वास्तव में ‘मैं’ यानी देह में देही यानी आत्मा की सत्ता है। अहं को
आत्मतत्व में विलीन करना ही साधना है जब मन वश में आ जायेगा
तो यह पाँच शत्रु या विकार भी वश में आ जाते हैं और इनकी जगह शील,
क्षमा, संतोष, विवेक और नम्रता आदि गुण ले लेते हैं, जो आत्मा के
स्वभाविक गुण हैं।
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