शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

☀श्री ब्रह्मास्त्र बगला वज्र कवचम्☀

श्री ब्रह्मास्त्र बगला वज्र कवचम्
🌸श्री ब्रह्मोवाच🌸
विश्वेश दक्षिणामूर्ते निगमागमवित् प्रभो ।
मह्यं पुरा त्वया दत्ता विद्या ब्रह्मास्त्रसंज्ञिता ।।
तस्य मे कवचं बूहि येनाहं सिद्धिमाप्नुयात् ।
भवामि वज्रकवचं ब्रह्मास्त्रन्यासमात्रतः ।।
 श्री दक्षिणामूर्तिरुवाचः 
श्रृणु ब्रह्मन् परम् गुह्यं ब्रह्मास्त्रकवचं शुभम् ।
यस्योच्चारणमात्रेण भवेद् वै सूर्यसन्निभः ।।
सुदर्शनं मयादत्तं कृपया विष्णवे तथा ।
तद्वत् ब्रह्मास्त्रविद्यायाः कवचं कथयाम्यहम् ।।
अष्टाविंशत्यस्त्रहेतुमाद्यं ब्रह्मास्त्रमुत्तमम् ।
सर्वतेजोमयं सर्व सामर्थ्य विग्रहं परम् ।।
सर्वशत्रुक्षयकरं सर्वदारिद्रयनाशनम् ।
सर्वापच्छैलराशीनामस्त्रकं कुलिशोपमम् ।।
न तस्य शत्रवश्चापि भयं चौर्यभयं जरा ।
नरा नार्यश्च राजेन्द्र खगा व्याघ्रादयोऽपि च ।।
तं दृष्ट्वा वशमायान्ति किमन्यत् साधवो जनाः ।
यस्य देहे न्यसेद् धीमान् कवचं बगलामयम् ।।
स एव पुरुषो लोके केवलः शंकरोपमः ।
न देय परशीष्याय शठाय पिशुनाय च ।।
दातव्यं भक्तियुक्ताय गुरुदासाय धीमते ।
कवचस्य ऋषिः श्रीमान् दक्षिणामूर्तिरेव च ।।
अस्यानुष्टुप् छन्दः स्यात् श्रीबगला चास्य देवता ।
बीजं श्रीवह्निजाया च शक्तिः श्रीबगलामुखी ।।
 ध्यानम् 
शुद्धस्वर्णनिभां रामां पीतेन्दुखण्डशेखराम् ।
पीतगन्धानुलिप्तांगीं पीतरत्नविभूषणाम् ।।
पीनोन्नतकुचां स्निग्धां पीतलांगीं सुपेशलाम् ।
त्रिलोचनां चतुर्हस्तां गम्भीरां मदविह्वलाम् ।।
वज्रारि रसनापाशमुदगरं दधतीं करैः ।
महाव्याघ्रासनां देवीं सर्वदेवनमस्कृताम् ।।
प्रसन्नां सुस्मितां क्लिन्नां सुपीतां प्रमदोत्तमाम् ।
सुभक्तदुःखहरणे दयार्द्रां दीनवत्सलाम् ।।
एवं ध्यात्वा परेशानि बगलाकवचं स्मरेत् ।
 मूल-पाठ 
बगला मे शिरः पातु ललाटं ब्रह्मसंस्तुता ।
बगला मे भ्रवौ नित्यं कर्णयोः क्लेशहारिणी ।।
त्रिनेत्रा चक्षुषी पातु स्तम्भिनी गण्डयोस्तथा ।
मोहिनी नासिकां पातु श्रीदेवी बगलामुखी ।।
ओष्ठयोर्दुर्धरा पातु सर्वदन्तेषु चञ्चला ।
सिद्धान्नपूर्णा जिह्वायां जिह्वाग्रे शारदाम्बिके ।।
अकल्मषा मुखे पातु चिबुके बगलामुखी ।
धीरा मे कष्ठदेशे तु कण्ठाग्रे कालकर्षिणी ।।
शुद्धस्वर्णनिभा पातु कण्ठमध्ये तथाऽम्बिका ।
कणऽठमूले माहभोगा स्कन्धौ शत्रुविनाशिनी ।।
भुजौ मे पातु सततं बगला सुस्मिता परा ।
बगला मे सदा पातु कूर्परे कमलोद्भवा ।।
बगलाऽम्बा प्रकोष्ठौ तु मणिबन्धे महाबला ।
बगलाश्रीर्हस्तयोश्च कुरुकुल्ला करांगुलिम् ।।
नखेषु वज्रहस्ता च हृदये ब्रह्मवादिनी ।
स्तनौ मे मन्दगमना कुक्षयोर्योगिनी तथा ।।
उदरं बगला माता नाभिं ब्रह्मास्त्रदेवता ।
पुष्टिं मुद्गरहस्ता च पातु नो देववन्दिता ।।
पार्शवयोर्हनुमद्वन्द्या पशुपाश-विमोचिनी ।
करौ रामप्रिया पातु ऊरुयुग्मं महेश्वरी ।।
भगमाला तु गुह्यं मे लिंगं कामेश्वरी तथा ।
लिंगमूले महाक्लिन्ना वृषणौ पातु दूतिका ।।
बगला जानुनी पातु जानुयुग्मं च नित्यशः ।
जंघे पातु जगदधात्री गुल्फौ रावण-पूजिता ।।
चरणौ दुर्जया पातु पीताम्बा चरणांगुलीः ।
पादपृष्ठं पद्महस्ता पादाधश्चक्रधारिणी ।।
सर्वांगं बगला देवी पातु श्रीबगलामुखी ।
ब्राह्मी मे पूर्वतः पातु माहेशी बह्निभागतः ।।
कौमारी दक्षिणे पातु वैष्णवी स्वर्गमार्गतः ।
ऊर्ध्वं पाशधरा पातु शत्रुजिह्वाधरा ह्यधः ।।
रणे राजकुले वादे महायोगे महाभये ।
बगला भैरवी पातु नित्यं क्लींकाररुपिणी ।।
 फल-श्रुति 
इत्येवं वज्रकवचं महाब्रह्मास्त्र संज्ञकम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेद् धीमान् सर्वैश्वर्यमवाप्नुयात् ।।
न तस्य शत्रवः केऽपि सखायः सर्व एव च ।
बलेनाकृष्य शत्रुं सोऽपि मित्रत्वमाप्नुयात् ।।
श्तुत्वे मरुता तुल्यो धनेन धनदोपमः ।
रुपेण कामतुल्यः स्याद् आयुषा शूलधृक्समः ।।
सनकादिसमो धैर्य श्रिया विष्णुसमो भवेत् ।
तत्तुल्यो विद्यया ब्रह्मन् यो जपेत् कवचं नरः ।।
नारी वापि प्रयत्नेन वाञ्छितार्थमवाप्नुत्यात् ।
द्वितीया सूर्यवारेण यदा भवति पद्मभूः ।।
तस्यां जातं शतावृत्या शीघ्रं प्रत्यक्षमाप्रंयात् ।
याता तुरीयं सन्ध्यायां भूशय्यायां प्रयत्नतः ।।
सर्वान् शत्रून् क्षयं कृत्वा विजयं प्राप्नुयान् नरः ।
दारिद्रयान् मुच्यते चाऽऽशु स्थिरा लक्ष्मीर्भवेद् गृहे ।।
सर्वान् कमानवाप्नोति सविषो निर्विषो भवेत् ।
ऋण निर्मोचनं स्याद् वै सहस्त्रावर्तनाद् विधे ।।
भूतप्रेतपिशाचादिपीडा तस्य न जायते ।
द्युणिभ्राजते यद्वत् तद्वत् स्याच्छ्रीप्रभावतः ।।
स्थिरा भवेत् तस्य यः स्मरेद् बगलामुखीम् ।
जयदं बोधनं कामममुकं देहि मे शिवे ।।
जपस्यान्ते स्मरेद् यो वै सोऽभीष्टफलमाप्नुयात् ।
न स सिद्धिमवाप्नोति साक्षाद् वै लोकपूजितः ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कवचं ब्रह्मतेजसम् ।।
नित्यं पदाम्बुजध्यानन् महेशानसमो भवेत् ।
श्रीदक्षिणामूर्ति संहितायां-
-ब्रह्मास्त्र-बगलामुखी कवचम ।।

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

ज्ञान की बात जो सत्य किन्तु कठोर है पर ग्रंथो में नहीं संतो के पास से ही मिलेगी

ज्ञान की बात जो सत्य किन्तु कठोर है पर ग्रंथो में नहीं संतो के पास से ही मिलेगी  


1.  किस्मत या भाग्य जिसको की कर्म भी कहा जाता है  प्रारब्ध भी कहते है को बनाने  वाला हमारा निज कृत कर्म  नहीं है  किस्मत या प्रारब्ध का निर्माण हमारी चाहना , तीव्र इच्छा, चाह , वासना  से ही होता है न की कर्म से |  हमारे जन्म लेने का कारन भी हमारी  विषयो के प्रति वासना,   हमारी चाहना , तीव्र इच्छा या चाह  ही है न कि कोई किया गया कर्म | उदहारण देखिये 
भगवन राम जब जनकपुर सीता स्वम्बर में गए थे और वहाँ जब वो गलियों में से जा रहे थे तो वहां की स्त्रियाँ उन्हें देख कर उनके सूंदर रूप पर मोहित होकर उन्हें पति रूप में पाने की चाह करने लगी और उनकी तीव्र चाह के कारन ही अगले जन्म में भगवन कृष्ण जी की 16108 स्त्रियाँ बनी | उनके दूसरे जन्म का कारन केवल उनकी तीव्र इच्छा ही थी  

2. दूसरा हमें जो  भी फल मिल रहा है जो कुछ भी मिल रहा है  उसका दाता कोई पूर्व का किया गया (पूर्व जन्म का ) कर्म नहीं है केवल हमारी मान्यता ही फल का दाता है | हमारी अपनी धारणा ही फल की देने वाली है  जैसे किसी ने किसी चौराहे पर गाय को खाने के लिए गुड़ रख दिया और धुप में वह गुड़ पिघल गया और चींटिया उस गुड़ को खाने के लिए गयी और उस पर चींटिया चिपक गयी |  वैसे तो जो भी वो सभी दृश्य देखेगा वो कहेगा की गुड़ रखने वाले को पाप लगेगा पर उसे पुण्य ही लगेगा | क्यों?

क्योंकि उसने गाय को खाने के लिए  गुड़ का दान किया उसके मन में दान की भावना है और उसने ये सोचा की मैंने एक अच्छा काम किया |  उसका ये सोचना " मैंने अच्छा काम किया है " ने ही उसे पुण्य का अधिकारी बना दिया |  नहीं तो उसके रखे गुड़ से चीटिंया चिपक कर मर गयी थी  देखने पर कर्म पापमय लग रहा था 

अतः उपरोक्त से ये समझे की स्थूल कर्म का कोई ज्यादा महत्त्व नहीं महत्त्व इच्छा और मान्यता का है सूक्ष्म विचारो का है 

रविवार, 31 दिसंबर 2017

विवाहिता स्त्री को गुरू करना चाहिये या नहीं ?

चिन्तन -  विवाहिता स्त्री को गुरू करना चाहिये या नहीं ?
आइए इसके बारे में हमारे शास्त्र क्या कहते हैं
जरा वह देखें ।
1-गुरूग्निद्विर्जातिनां वर्णाणां ब्रह्मणो गुरूः।
*पतिरेकोगुरू स्त्रीणां सर्वस्याम्यगतो गुरूः।।
(पदम पुं . स्वर्ग खं 40-75)
अर्थ : अग्नि ब्राह्मणो का गुरू है।
अन्य वर्णो का ब्राह्मण गुरू है।
एक मात्र उनका पति ही स्त्रीयों का गुरू है
तथा अतिथि सब का गुरू है।
2-पतिर्बन्धु गतिर्भर्ता दैवतं गुरूरेव च।
सर्वस्याच्च परः स्वामी न गुरू स्वामीनः परः।।
(ब्रह्मवैवतं पु. कृष्ण जन्म खं 57-11)
अर्थ _ स्त्रीयों का सच्चा बन्धु पति है, पति ही उसकी गति है। पति ही उसका एक मात्र देवता है। पति ही उसका स्वामी है और स्वामी से ऊपर उसका कोई गुरू नहीं।।
3- भर्ता देवो गुरूर्भता धर्मतीर्थव्रतानी च।
तस्मात सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत्।।
(स्कन्द पु. काशी खण्ड पूर्व 30-48)
अर्थ - स्त्रीयों के लिए पति ही इष्ट देवता है। पति ही गुरू है। पति ही धर्म है, तीर्थ और व्रत आदि है। स्त्री को पृथक कुछ करना अपेक्षित नहीं है।
4- _दुःशीलो दुर्भगो वृध्दो जड़ो रोग्यधनोSपि वा।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।
(श्रीमद् भा. 10-29-25)
अर्थ -पतिव्रता स्त्री को पति के अलावा और किसी को पूजना नहीं चाहिए, चाहे पति बुरे स्वभाव वाला हो, भाग्यहीन, वृध्द, मुर्ख, रोगी या निर्धन हो। पर वह पातकी न होना चाहिए।
वेदों, पुराणों, भागवत आदि शास्त्रो ने स्त्री को बाहर का गुरू न करने के लिए कहा यह शास्त्रों के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है।
आज हर स्त्री बाहर के गुरूओं के पीछे पागलों की तरह पड जाती हैं तथा उनके पीछे अपने पति की कड़े परिश्रम की कमाई लुटाती फिरती हैं।
आज सत्संग-आध्यात्मिक ज्ञान की जगह न होकर व्यापारिक स्थल बन गया है।
इसलिए सावधान हो जाइये.
गुरू करने से पहले देख लो कि वह गुरू जिन शास्त्रों का सहारा लेकर हमें ज्ञान दे रहा है, वह स्वयं उस पर कितना चल रहा है?
हिन्दू धर्म में पति के रहते किसी को गुरु बनाने की इजाजत नहीं है।
आप कोई भी समागम देख लो,
औरतो ने ही भीड़ लगाई हुई है।
परिवार जाए भाड़ में।
बाबा की सेवा करके मोक्ष प्राप्त करना है बस..!!
सुभाष चंद मिश्रा 9971485458, 7838157738