मुजफ्फरनगर में भड़के सांप्रदायिक दंगे के बीच एक बात बार-बार कही जा रही है कि खाप पंचायतों के कारण मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा की भावना बढ़ गई जिसके कारण दंगे भड़क गये। ये खाप पंचायतें कब हुईं यह तो बताया जा रहा है लेकिन क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि खाप पंचायतों से भी बहुत पहले 30 अगस्त को जुम्मे की नमाज के दौरान मुजफ्फरनगर की मस्जिदों में क्या तकरीरें की गई थीं? सरकार को तभी चेतना चाहिये था। जो लोग नमाज़ को साम्प्रदायिकता भड़काने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे, उनकी शिनाख्त कर, उनसे पूछताछ करनी चाहिये थी लेकिन प्रशासन ने ऐसा कुछ नहीं किया। क्यों नहीं किया? यह सबसे बडा सवाल है। मुजफ्फरनगर की हकीकत यह है कि महापंचायत के कारण फसाद पैदा नहीं हुआ बल्कि नमाज में की गई तकरीरें फसाद का कारण बनीं।
मुज्जफरनगर के कवाल गाँव के शाहबाज़ ने कालिज से पढ़ कर आती एक लड़की को छेड़ा और उसे तंग किया। लड़की ने घर आकर अपनी दुर्गति की घटना बताई तो लड़की के भाईयों, सचिन और गौरव ने शाहबाज़ से मारपीट की जिससे उसकी मृत्यु हो गई। यदि वह किसी टीवी चैनल का एंकर न हो तो कोई भी स्वाभिमानी भाई, अपनी बहन को छेड़े जाने से इस प्रकार की उग्र प्रतिक्रिया करेगा ही। यह अलग बात है कि कुछ लोगों को यह प्रतिक्रिया सामन्तवादी चेतना लगे। शाहबाज़ की मौत के बाद पूरे गांव ने मिलकर सचिन और गौरव की हत्या कर दी। इस पूरे कांड को यहाँ तक तो स्वभाविक क्रिया-प्रतिक्रिया कहा जा सकता है लेकिन इसका अगला हिस्सा चिन्ता का कारण है।
तीस अगस्त को शुक्रवार था। ज़ुम्मे की नमाज के बहाने हज़ारों मुसलमान एकत्रित हुये और धारा १४४ की चिन्ता न करते हुये वहाँ उत्तेजक भाषण हुये। किसी ने भी शाहबाज के आचरण की निन्दा नहीं की। सभी लड़की के भाईयों को ही दोषी ठहरा रहे थे। इन्तकाम लेने की बातें की जा रही थीं। लडकी यदि चुपचाप शाहबाज के शोषण का शिकार होती रहती तब शायद तथाकथित पंथ निरपेक्षता के दावेदार इसे हिन्दु-मुस्लिम एकता का उदाहरण कह कर प्रचारित करते। शाहबाज को एक ही तरीके से दोषी ठहराया जा सकता था। यदि लडकी शाहबाज की शिकायत घरवालों से करने की बजाय गले में चुन्नी डाल कर पंखे से लटक जाती, तब निश्चय ही प्रशासन और मीडिया शाहबाज को कटघरे में खडा करता। लेकिन लड़की का दोष केवल इतना ही था कि उसने आत्महत्या नहीं की। शायद सरकार चला रहे प्रगतिवादी ये भी कहें कि ऐसे केसों में पुरानी परम्परा को देखते हुए उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिये थी। उसने आत्महत्या नहीं की तभी जुम्मे के दिन लोग इतना भड़क गये।
महापंचायतों को लेकर सरकार सतर्क थी उससे भी पहले जुम्मे की नमाज के वक्त सरकार सतर्क क्यों नहीं हुई? उस वक्त सरकार को क्यों लकवा मार गया? आजम खान तो जरुर इसका उत्तर जानते होंगे। क्या अब सरकार मुस्लिम साम्प्रदायिकता को रोकने में ही स्वयं को अशक्त अनुभव करती है या फिर उनको रोकने से मतदान पर असर पड़ता है, इसलिये उसे रोकना ही नहीं चाहती? ये दोनों स्थितियाँ ही भविष्य के ख़तरे का संकेत देती हैं।
मुसलमानों के चोरी और सीनाज़ोरी के इसी आचरण को देखते हुये इलाक़े के लोगों ने बहू बेटी बचाओ पंचायत बुलाई। गृहमंत्री शिन्दे कह रहे हैं कि इस पंचायत में सभी राजनैतिक दलों के लोग शामिल थे, इससे सिद्ध होता है कि राजनैतिक दलों ने ही दंगा भड़काने का काम किया। अपनी अपनी अकल और समझ है। शिन्दे यह नहीं समझ पा रहे कि पंचायत में सभी दलों के लोग थे, इससे पता चलता है कि लड़की को छेड़ने का मामला राजनैतिक नहीं बल्कि सामाजिक था और इसी लिये समाज के सभी वर्गों के लोग इस गुंडागर्दी को रोकने के लिये एकत्रित हुये थे। यह राजनैतिक सम्मेलन नहीं बल्कि सामाजिक पंचायत थी। अलबत्ता शिन्दे कह सकते हैं कि आज के युग में लड़के लड़कियों में इस प्रकार की छेडाछाडी होती रहती है, इसके लिये इतनी बड़ी महापंचायत बुलाने की क्या ज़रुरत थी? इसलिये फ़साद की जड़ तो यह महापंचायत ही ठहराई जायेगी। शिन्दे ठीक कह रहे हैं। लेकिन लड़कियों को छेड़े जाने को यूरोप में साधारण माना जाता होगा, फ़िलहाल मुज्जफरनगर के लोगों में इतनी समझ नहीं विकसित हुई है। वे अभी भी पोंगापंथी ही बने हुये हैं। घर की लड़की को छेड़े जाने पर इतने उत्तेजित हो जाते हैं। शिन्दे शायद आजकल यूरोप के लोगों के साथ ज़्यादा उठते बैठते हैं इसलिये वे भारत की मानसिकता को समझ नहीं पा रहे।
महापंचायत में, यदि लोग दंगा करने के इरादे से आये होते तो यक़ीनन पूरी तैयारी से आये होते और तब वे इस प्रकार दंगा करने वालों के हाथों न पिटते और न ही मरते। पंचायत से घरों को लौट रहे लोगों पर मुस्लिम बहुल गाँवों में जगह जगह आक्रमण हुये, इसकी किसी ने तो समय रहते तैयारी करवाई ही होगी। लोगों को मार कर नहर में फेंकने की पूरी तैयारी की गई होगी। प्रशासन को क्या इसकी भनक न थी? यदि थी तो उसे समय रहते, महापंचायत के घर लौट रहे लोगों पर आक्रमण करने वालों को, गिरफ़्तार करने से किसने रोका? मुसलमानों के कायदे आजम आज़म खान, जो सुना है बीमार हो गये हैं, क्या सुन रहे हैं? जब कट्टरपंथी आग की चिनगारियाँ फेंक रहे थे तो सरकार क्या कर रही थी?
अब अगला प्रश्न, जो सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। देखते देखते दंगा मुज्जफरपुर और शामली जिलों के गाँवों तक फैल गया, इसका कारण क्या हो सकता है? दरअसल पिछले कुछ समय से सोनिया कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल समेत लगभग सभी राजनैतिक दल चन्द वोटों की ख़ातिर मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगे हुये हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि इस देश के प्रकृतिक साधनों पर पहला अधिकार ही मुसलमानों का है। मुलायम सिंह का सारा दिमाग़ ही इस काम में ख़र्च हो रहा है कि मज़हब के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण कैसे दिया जाये। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जाते जाते यह फ़ैसला सुना गये कि शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता लाने वाली प्रवेश परीक्षा रद्द कर दी जाये, क्योंकि इससे अल्पसंख्यक संस्थाओं को अनुशासित होना पड़ेगा। सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद तो ऐसा क़ानून बनाने के चक्कर में लगी है जिसके अनुसार बिना किसी जाँच के, किसी भी दंगे में हिन्दु ही दोषी ठहराया जायेगा। सरकार अल्पसंख्यक मंत्रालय के नाम पर मुसलमानों के लिये अलग से विभाग बना रही है।
ज़ाहिर है इस प्रकार के माहौल में ज़ुम्मे की नमाज़ में वही भाषण दिये जा सकते हैं जो तीस अगस्त को मुज्जफरनगर में दिये गये थे । सरकार कोई ऐसा क़ानून क्यों नहीं बनाती जिसमें ज़ुम्मे की नमाज़ के वक़्त साम्प्रदायिक भाषणों पर रोक लगाई जा सके? लेकिन ऐसा करने के लिये राजनीति को परे रखना होगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में बैठे लोग कभी शाहबाजों को दोषी नहीं ठहरा सकते। यही राजनीति का पेंच है। इसी पेंच में लव जिहाद पनप रहा है। इसी पेंच में सचिन गौरव मारा जा रहा है। न शिन्दे की समझ में आ रहा है, न मायावती समझ पा रही है और न ही मुलायम के भेजे में समा रहा है कि इन सभी ने जिस समाज में, वोट की ख़ातिर, इतनी दरारें डाल दीं थीं, वह संकट काल में एकजुट कैसे हो गया। प्रगतिवादी तो मुँह बायें खड़े हैं, या खुदा, दलित लोग मुसलमानों से क्यों लड रहे हैं? मीडिया इसमें अभी भी राजनीति टटोल रहा है, जबकि असल मुद्दा मुसलमानों के बदलते उग्र तेवरों से पैदा हो रहा है। जो राजनैतिक दल पिछले सालों से इन्हें उग्र करने में लगे थे वे मुज्जफरनगर की घुंडी को क्या पकड़ेंगे? क्योंकि इस रक्तपात की ज़िम्मेदारी तो इन्हीं के सिर पर है।