(इसे सुनकर अदालत में उपस्थित सभी लोगों की आँखें गीली हो गयी थीं और कई तो रोने लगे थे। एक न्यायाधीश महोदय ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता और उनसे फैसला देने को कहा जाता, तो निस्संदेह वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम के निर्दोष होने का निर्णय देते।)
एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू इतिहास और हिन्दू संस्कृति की पूजा करता हूँ। इसलिए मैं सम्पूर्ण हिन्दुत्व पर गर्व करता हूँ। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने मुक्त विचार करने की प्रवृत्ति का विकास किया, जो किसी भी राजनैतिक या धार्मिक वाद की असत्य-मूलक भक्ति की बातों से मुक्त हो। यही कारण है कि मैंने अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद को मिटाने के लिए सक्रिय कार्य किया। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जातिवाद-विरोधी आन्दोलन में खुले रूप में शामिल हुआ और यह मानता हूँ कि सभी हिन्दुओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं, सभी को उनकी योग्यता के अनुसार छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए, न कि किसी विशेष जाति या व्यवसाय में जन्म लेने के कारण। मैं जातिवाद-विरोधी सहभोजों के आयोजन में सक्रिय भाग लिया करता था, जिसमें हजारों हिन्दू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार और भंगी भाग लेते थे। हमने जाति के बंधनों को तोड़ा और एक दूसरे के साथ भोजन किया।
मैंने रावण, चाणक्य, दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द, गोखले, तिलक के भाषणों और लेखों को पढ़ा है। साथ ही मैंने भारत और कुछ अन्य प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को भी पढ़ा है। इनके अतिरिक्त मैंने समाजवाद और माक्र्सवाद के सिद्धान्तों का भी अध्ययन किया है। लेकिन इन सबसे ऊपर मैंने वीर सावरकर और गाँधीजी के लेखों और भाषणों का भी गहरायी से अध्ययन किया है, क्योंकि मेरे विचार से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले लगभग तीस वर्षों में भारतीय जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभायी है।
इस समस्त अध्ययन और चिन्तन से मेरा यह विश्वास बन गया है कि एक देशभक्त और एक विश्व नागरिक के नाते हिन्दुत्व और हिन्दुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य है। स्वतंत्रता प्राप्त करने और लगभग 30 करोड़ हिन्दुओं के न्यायपूर्ण हितों की रक्षा करने से समस्त भारत, जो समस्त मानव जाति का पाँचवा भाग है, को स्वतः ही आजादी प्राप्त होगी और उसका कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ ही मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू संगठन की विचारधारा और कार्यक्रम में लगा देने का निर्णय किया, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल इसी विधि से मेरी मातृभूमि हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को प्राप्त किया और सुरक्षित रखा जा सकेगा एवं इसके साथ ही वह मानवता की सच्ची सेवा भी कर सकेगी।
सन् 1920 से अर्थात् लोकमान्य तिलक के देहान्त के पश्चात् कांग्रेस में गाँधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर सर्वोच्च हो गया। जन जागरण के लिए उनकी गतिविधियाँ अपने आप में बेजोड़ थीं और फिर सत्य तथा अहिंसा के नारों से वे अधिक मुखर हुईं, जिनको उन्होंने देश के समक्ष आडम्बर के साथ रखा था। कोई भी बुद्धिमान या ज्ञानी व्यक्ति इन नारों पर आपत्ति नहीं उठा सकता। वास्तव में इनमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं है। वे प्रत्येक सांवैधानिक जन आन्दोलन में शामिल होते हैं। लेकिन यह केवल दिवा स्वप्न ही है यदि आप यह सोचते हैं कि मानवता का एक बड़ा भाग इन उच्च सिद्धान्तों का अपने सामान्य दैनिक जीवन में अवलम्बन लेने या व्यवहार में लाने में समर्थ है या कभी हो सकता है।
वस्तुतः सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी-कभी हमें अहिंसा के सिद्धान्त से हटने के लिए और बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकता है। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी गलत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूँ। (रामायण में) राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया, (महाभारत में) कृष्ण ने कंस को मारकर उसकी निर्दयता का अन्त किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं सम्बंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे, के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि महात्मा गाँधी ने राम, कृष्ण और अर्जुन को हिंसा का दोषी ठहराकर मानव की सहज प्रवृत्तियों के साथ विश्वासघात किया था।
अधिक आधुनिक इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने वीरतापूर्ण संघर्ष के द्वारा ही पहले भारत में मुस्लिमों के अन्याय को रोका और फिर उनको समाप्त किया। शिवाजी द्वारा अफजल खाँ को काबू करना और उसका वध करना अत्यन्त आवश्यक था, अन्यथा उनके अपने प्राण चले जाते। इतिहास के इन विराट योद्धाओं जैसे शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह की निन्दा ‘दिग्भ्रमित देशभक्त’ कहकर करने से गाँधीजी ने केवल अपनी आत्म-केन्द्रीयता को ही प्रकट किया था। वे एक दृढ़ शान्तिप्रेमी मालूम पड़ सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोकविरुद्ध थे, क्योंकि वे देश में सत्य और अहिंसा के नाम पर अकथनीय दुर्भाग्य की स्थिति बना रहे थे, जबकि राणा प्रताप, शिवाजी एवं गुरु गोविन्द सिंह स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने देशवासियों के हृदय में सदा पूज्य रहेंगे।
उनकी 32 वर्षों तक उकसाने वाली गतिविधियों के बाद पिछले मुस्लिम-परस्त अनशन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने को बाध्य हुआ था कि गाँधी के अस्तित्व को अब तत्काल मिटा देना चाहिए। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में वहाँ के भारतीय समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए अच्छा कार्य किया, लेकिन जब वे अन्त में भारत लौटे, तो उन्होंने एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्तर्गत अन्तिम रूप से वे अकेले ही किसी बात को सही या गलत तय करने लगे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिए, तो उसको उनको सर्वदा-सही मानना पड़ेगा और यदि ऐसा न माना जाये, तो वे कांग्रेस से अलग हो जायेंगे और अपनी अलग गतिविधियाँ चलायेंगे। ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता। या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वज्ञान तथा आदिम दृष्टिकोण में स्वर-में-स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये।
वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के लिए निर्णायक थे। वे नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के पीछे प्रमुख मस्तिष्क थे, कोई अन्य उस आन्दोलन की तकनीक नहीं जान सकता था। वे अकेले ही जानते थे कि कोई आन्दोलन कब प्रारम्भ किया जाये और कब उसे वापस लिया जाये। आन्दोलन चाहे सफल हो या असफल, चाहे उससे अकथनीय आपदाएँ और राजनैतिक अपघात हों, लेकिन उससे उस महात्मा के कभी-गलत-नहीं होने के गुण पर कोई अन्तर नहीं पड़ सकता। अपने कभी-गलत-न-होने की घोषणा के लिए उनका सूत्र था- ‘सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ और उनके अलावा कोई नहीं जानता कि ‘सत्याग्रही’ होता क्या है। इस प्रकार महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे। इन बच्चों जैसे पागलपन और स्वेच्छाचारिता के साथ अति कठोर आत्मसंयम, निरन्तर कार्य और उन्नत चरित्र ने मिलकर गाँधी को भयंकर रूप से उग्र तथा निद्र्वन्द्व बना दिया था।
बहुत से लोग सोचते थे कि उनकी राजनीति विवेकहीन थी, पर या तो उन्हें कांगे्रेस को छोड़ना पड़ा या अपनी प्रतिभा को गाँधी के चरणों में डाल देना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे। ऐसी पूर्ण गैरजिम्मेदारी की स्थिति में गाँधी भूल पर भूल, असफलता पर असफलता और आपदा पर आपदा पैदा करने के अपराधी थे। भारत की राष्ट्र भाषा के प्रश्न पर गाँधी की मुस्लिमपरस्त नीति उनकी हड़बड़ीपूर्ण प्रवृत्ति के अनुसार ही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि देश की प्रमुख भाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा सबसे अधिक मजबूत है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ में गाँधीजी हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन देते थे, लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नहीं करते, तो वे तथाकथित ‘हिन्दुस्तानी’ के पुरोधा बन गये। भारत में सभी जानते हैं कि ‘हिन्दुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है। यह केवल एक बोली है, जो केवल बोली जाती है, लिखी नहीं जाती। यह हिन्दी और उर्दू की एक संकर या दोगली बोली है और महात्मा गाँधी का मिथ्यावाद भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सकता। लेकिन केवल मुस्लिमों को प्रसन्न करने की अपनी इच्छा के अनुसार उनका आग्रह था कि केवल ‘हिन्दुस्तानी’ ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हालांकि उनके अन्धभक्तों ने उनका समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोग की जाने लगी। इस प्रकार मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिन्दी भाषा के सौन्दर्य और शुद्धता के साथ बलात्कार किया गया। उनके सारे प्रयोग केवल हिन्दुओं की कीमत पर किये जाते थे।
अगस्त 1946 के बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं ने हिन्दुओं का सामूहिक संहार प्रारम्भ किया। तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने इन घटनाओं से व्यथित होते हुए भी भारत सरकार कानून 1935 के अनुसार प्राप्त अपनी शक्तियों का उपयोग बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के लिए नहीं किया। बंगाल से कराची तक हिन्दुओं का खून बहता रहा, जिसका प्रतिरोध हिन्दुओं द्वारा कहीं-कहीं किया गया। सितम्बर में बनी अन्तरिम सरकार के साथ मुस्लिम लीग के सदस्यों द्वारा प्रारम्भ से ही विश्वासघात किया गया, लेकिन वे सरकार के साथ, जिसके वे अंग थे, जितने अधिक राजद्रोही और विश्वासघाती होते जाते थे, उनके प्रति गाँधी का मोह उतना ही बढ़ता चला जाता था। लार्ड वैवेल को त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि वे इस समस्या को हल नहीं कर सके और उनकी जगह लार्ड माउंटबेटन आये, जैसे नागनाथ की जगह साँपनाथ आये हों। कांग्रेस ने, जो अपनी देशभक्ति और समाजवाद का दम्भ किया करती थी, गुप्त रूप से बन्दूक की नोंक पर पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के टुकड़े कर दिये गये और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक-तिहाई भाग हमारे लिए विदेशी भूमि हो गयी।
कांग्रेस में लार्ड माउंटबेटन को भारत का सबसे महान् वायसराय और गवर्नरजनरल बताया जाता है। सत्ता के हस्तांतरण की आधिकारिक तिथि 30 जून 1948 तय की गयी थी, परन्तु माउंटबेटन ने अपनी निर्दयतापूर्ण चीरफाड़ के बाद हमें 10 महीने पहले ही विभाजित भारत दे दिया। गाँधी को अपने तीस वर्षों की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही प्राप्त हुआ और यही है जिसे कांग्रेस ‘स्वतंत्रता’ और ‘सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तांतरण’ कहती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का बुलबुला अन्ततः फूट गया और नेहरू तथा उनकी भीड़ की स्वीकृति के साथ ही एक धर्माधारित राज्य बना दिया गया। इसी को वे ‘बलिदानों द्वारा जीती गयी स्वतंत्रता’ कहते हैं। किसका बलिदान? जब कांग���रेस के शीर्ष नेताओं ने गाँधी की सहमति से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते हैं, तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया।
गाँधी ने अपने आमरण अनशन को तोड़ने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उनमें एक दिल्ली में हिन्दू शरणार्थियों द्वारा घेरी गयी मस्जिदों को खाली करने से सम्बंधित थी। परन्तु जब पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हिंसक आक्रमण किये गये, तब उन्होंने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला और पाकिस्तान सरकार अथवा सम्बंधित मुसलमानों को इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। गाँधी इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ने के लिए पाकिस्तान मुसलमानों पर कोई शर्त रखी, तो उनको शायद ही कोई मुसलमान ऐसा मिलेगा जो उनकी जिन्दगी की जरा भी चिन्ता करेगा, भले ही आमरण अनशन में उनके प्राण चले जायें। इसी कारण उन्होंने अनशन तोड़ने के लिए जानबूझकर मुस्लिमों पर कोई शर्त नहीं लगायी। वे अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते थे कि जिन्ना उनके अनशन से बिल्कुल भी विचलित या प्रभावित नहीं थे और मुस्लिम लीग गाँधी की आत्मा की आवाज का कोई मूल्य नहीं समझती।
गाँधी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जा रहा है। यदि ऐसा है तो वे अपने पिता जैसे कर्तव्य को निभाने में पूर्णतः असफल रहे, क्योंकि उन्होंने उसके विभाजन की स्वीकृति देकर उसके साथ विश्वासघात किया। मैं साहसपूर्वक कहता हूँ कि गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गये। उन्होंने स्वयं को ‘पाकिस्तान का पिता’ होना सिद्ध किया। उनकी अन्दर की आवाज, उनकी आत्मिक शक्ति, उनका अहिंसा का सिद्धान्त, जिनसे वे बने थे, सभी जिन्ना की लौह-इच्छा के सामने चरमरा गयी और वे शक्तिहीन सिद्ध हुए। संक्षेप में, मैंने स्वयं विचार किया और समझ गया कि यदि मैं गाँधी को मार दूँगा, तो मैं पूरी तरह नष्ट हो जाऊँगा, लोगों से मुझे केवल घृणा ही मिलेगी और मैं अपना सारा सम्मान खो दूँगा, जो कि मेरे लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन, इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि गाँधीजी के बिना भारत की राजनीति अधिक व्यावहारिक तथा प्रतिरोधक्षम होगी तथा सशस्त्र सेनाएँ भी अधिक बलशाली होंगी। निस्संदेह मेरा अपना भविष्य पूरी तरह खण्डहर हो जाएगा, लेकिन राष्ट्र पाकिस्तान के आक्रमणों से बच जाएगा। लोग भले ही मुझे मूर्ख या पागल कहेंगे, लेकिन राष्ट्र उस रास्ते पर बढ़ने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा, जिसको मैं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक समझता हूँ।
इस प्रश्न पर पूरी तरह विचार करने के बाद, मैंने इस सम्बंध में अन्तिम निर्णय कर लिया, लेकिन मैंने इस बारे में किसी से भी कोई बात नहीं की। मैंने अपने दोनो हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर गाँधीजी के ऊपर गोलियाँ दाग दीं। मैं कहता हूँ कि मेरी गोलियाँ एक ऐसे व्यक्ति पर चलायी गयी थीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों हिन्दुओं को केवल बरबादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके अन्तर्गत उस अपराधी को सजा दिलायी जा सकती और इसीलिए मैंने वे घातक गोलियाँ चलायीं। मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मैं कहता हूँ कि मेरे मन में इस वर्तमान सरकार के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिसकी नीतियाँ अन्याय की हद तक मुसलमानों के प्रति अनुकूल हैं। लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी स्पष्ट अनुभव करता हूँ कि ये नीतियाँ पूरी तरह गाँधीजी की उपस्थिति के कारण बनी थीं।
मैं बहुत खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश और कार्य कई बार एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं, जब इधर-उधर वे कहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, क्योंकि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पाकिस्तान के पंथ��धारित देश की स्थापना में नेहरू ने प्रमुख भूमिका निभायी थी और उनका कार्य गाँधीजी द्वारा लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने की नीति द्वारा सरल बन गया था। मैंने जो भी किया है उसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के सामने खड़ा हूँ और निश्चय जी न्यायाधीश ऐसा आदेश पारित करेंगे, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं चाहता और न मैं यह चाहता हूँ कि कोई अन्य मेरे लिए किसी से कोई दया-याचना करे। अपने कार्य के नैतिक पक्ष पर मेरा विश्वास सभी ओर से की गयी मेरी आलोचनाओं से किंचित भी विचलित नहीं हुआ है। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तौलकर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे। जय हिन्द।
एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू इतिहास और हिन्दू संस्कृति की पूजा करता हूँ। इसलिए मैं सम्पूर्ण हिन्दुत्व पर गर्व करता हूँ। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने मुक्त विचार करने की प्रवृत्ति का विकास किया, जो किसी भी राजनैतिक या धार्मिक वाद की असत्य-मूलक भक्ति की बातों से मुक्त हो। यही कारण है कि मैंने अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद को मिटाने के लिए सक्रिय कार्य किया। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जातिवाद-विरोधी आन्दोलन में खुले रूप में शामिल हुआ और यह मानता हूँ कि सभी हिन्दुओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं, सभी को उनकी योग्यता के अनुसार छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए, न कि किसी विशेष जाति या व्यवसाय में जन्म लेने के कारण। मैं जातिवाद-विरोधी सहभोजों के आयोजन में सक्रिय भाग लिया करता था, जिसमें हजारों हिन्दू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार और भंगी भाग लेते थे। हमने जाति के बंधनों को तोड़ा और एक दूसरे के साथ भोजन किया।
मैंने रावण, चाणक्य, दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द, गोखले, तिलक के भाषणों और लेखों को पढ़ा है। साथ ही मैंने भारत और कुछ अन्य प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को भी पढ़ा है। इनके अतिरिक्त मैंने समाजवाद और माक्र्सवाद के सिद्धान्तों का भी अध्ययन किया है। लेकिन इन सबसे ऊपर मैंने वीर सावरकर और गाँधीजी के लेखों और भाषणों का भी गहरायी से अध्ययन किया है, क्योंकि मेरे विचार से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले लगभग तीस वर्षों में भारतीय जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभायी है।
इस समस्त अध्ययन और चिन्तन से मेरा यह विश्वास बन गया है कि एक देशभक्त और एक विश्व नागरिक के नाते हिन्दुत्व और हिन्दुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य है। स्वतंत्रता प्राप्त करने और लगभग 30 करोड़ हिन्दुओं के न्यायपूर्ण हितों की रक्षा करने से समस्त भारत, जो समस्त मानव जाति का पाँचवा भाग है, को स्वतः ही आजादी प्राप्त होगी और उसका कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ ही मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू संगठन की विचारधारा और कार्यक्रम में लगा देने का निर्णय किया, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल इसी विधि से मेरी मातृभूमि हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को प्राप्त किया और सुरक्षित रखा जा सकेगा एवं इसके साथ ही वह मानवता की सच्ची सेवा भी कर सकेगी।
सन् 1920 से अर्थात् लोकमान्य तिलक के देहान्त के पश्चात् कांग्रेस में गाँधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर सर्वोच्च हो गया। जन जागरण के लिए उनकी गतिविधियाँ अपने आप में बेजोड़ थीं और फिर सत्य तथा अहिंसा के नारों से वे अधिक मुखर हुईं, जिनको उन्होंने देश के समक्ष आडम्बर के साथ रखा था। कोई भी बुद्धिमान या ज्ञानी व्यक्ति इन नारों पर आपत्ति नहीं उठा सकता। वास्तव में इनमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं है। वे प्रत्येक सांवैधानिक जन आन्दोलन में शामिल होते हैं। लेकिन यह केवल दिवा स्वप्न ही है यदि आप यह सोचते हैं कि मानवता का एक बड़ा भाग इन उच्च सिद्धान्तों का अपने सामान्य दैनिक जीवन में अवलम्बन लेने या व्यवहार में लाने में समर्थ है या कभी हो सकता है।
वस्तुतः सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी-कभी हमें अहिंसा के सिद्धान्त से हटने के लिए और बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकता है। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी गलत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूँ। (रामायण में) राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया, (महाभारत में) कृष्ण ने कंस को मारकर उसकी निर्दयता का अन्त किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं सम्बंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे, के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि महात्मा गाँधी ने राम, कृष्ण और अर्जुन को हिंसा का दोषी ठहराकर मानव की सहज प्रवृत्तियों के साथ विश्वासघात किया था।
अधिक आधुनिक इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने वीरतापूर्ण संघर्ष के द्वारा ही पहले भारत में मुस्लिमों के अन्याय को रोका और फिर उनको समाप्त किया। शिवाजी द्वारा अफजल खाँ को काबू करना और उसका वध करना अत्यन्त आवश्यक था, अन्यथा उनके अपने प्राण चले जाते। इतिहास के इन विराट योद्धाओं जैसे शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह की निन्दा ‘दिग्भ्रमित देशभक्त’ कहकर करने से गाँधीजी ने केवल अपनी आत्म-केन्द्रीयता को ही प्रकट किया था। वे एक दृढ़ शान्तिप्रेमी मालूम पड़ सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोकविरुद्ध थे, क्योंकि वे देश में सत्य और अहिंसा के नाम पर अकथनीय दुर्भाग्य की स्थिति बना रहे थे, जबकि राणा प्रताप, शिवाजी एवं गुरु गोविन्द सिंह स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने देशवासियों के हृदय में सदा पूज्य रहेंगे।
उनकी 32 वर्षों तक उकसाने वाली गतिविधियों के बाद पिछले मुस्लिम-परस्त अनशन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने को बाध्य हुआ था कि गाँधी के अस्तित्व को अब तत्काल मिटा देना चाहिए। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में वहाँ के भारतीय समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए अच्छा कार्य किया, लेकिन जब वे अन्त में भारत लौटे, तो उन्होंने एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्तर्गत अन्तिम रूप से वे अकेले ही किसी बात को सही या गलत तय करने लगे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिए, तो उसको उनको सर्वदा-सही मानना पड़ेगा और यदि ऐसा न माना जाये, तो वे कांग्रेस से अलग हो जायेंगे और अपनी अलग गतिविधियाँ चलायेंगे। ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता। या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वज्ञान तथा आदिम दृष्टिकोण में स्वर-में-स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये।
वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के लिए निर्णायक थे। वे नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के पीछे प्रमुख मस्तिष्क थे, कोई अन्य उस आन्दोलन की तकनीक नहीं जान सकता था। वे अकेले ही जानते थे कि कोई आन्दोलन कब प्रारम्भ किया जाये और कब उसे वापस लिया जाये। आन्दोलन चाहे सफल हो या असफल, चाहे उससे अकथनीय आपदाएँ और राजनैतिक अपघात हों, लेकिन उससे उस महात्मा के कभी-गलत-नहीं होने के गुण पर कोई अन्तर नहीं पड़ सकता। अपने कभी-गलत-न-होने की घोषणा के लिए उनका सूत्र था- ‘सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ और उनके अलावा कोई नहीं जानता कि ‘सत्याग्रही’ होता क्या है। इस प्रकार महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे। इन बच्चों जैसे पागलपन और स्वेच्छाचारिता के साथ अति कठोर आत्मसंयम, निरन्तर कार्य और उन्नत चरित्र ने मिलकर गाँधी को भयंकर रूप से उग्र तथा निद्र्वन्द्व बना दिया था।
बहुत से लोग सोचते थे कि उनकी राजनीति विवेकहीन थी, पर या तो उन्हें कांगे्रेस को छोड़ना पड़ा या अपनी प्रतिभा को गाँधी के चरणों में डाल देना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे। ऐसी पूर्ण गैरजिम्मेदारी की स्थिति में गाँधी भूल पर भूल, असफलता पर असफलता और आपदा पर आपदा पैदा करने के अपराधी थे। भारत की राष्ट्र भाषा के प्रश्न पर गाँधी की मुस्लिमपरस्त नीति उनकी हड़बड़ीपूर्ण प्रवृत्ति के अनुसार ही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि देश की प्रमुख भाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा सबसे अधिक मजबूत है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ में गाँधीजी हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन देते थे, लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नहीं करते, तो वे तथाकथित ‘हिन्दुस्तानी’ के पुरोधा बन गये। भारत में सभी जानते हैं कि ‘हिन्दुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है। यह केवल एक बोली है, जो केवल बोली जाती है, लिखी नहीं जाती। यह हिन्दी और उर्दू की एक संकर या दोगली बोली है और महात्मा गाँधी का मिथ्यावाद भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सकता। लेकिन केवल मुस्लिमों को प्रसन्न करने की अपनी इच्छा के अनुसार उनका आग्रह था कि केवल ‘हिन्दुस्तानी’ ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हालांकि उनके अन्धभक्तों ने उनका समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोग की जाने लगी। इस प्रकार मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिन्दी भाषा के सौन्दर्य और शुद्धता के साथ बलात्कार किया गया। उनके सारे प्रयोग केवल हिन्दुओं की कीमत पर किये जाते थे।
अगस्त 1946 के बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं ने हिन्दुओं का सामूहिक संहार प्रारम्भ किया। तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने इन घटनाओं से व्यथित होते हुए भी भारत सरकार कानून 1935 के अनुसार प्राप्त अपनी शक्तियों का उपयोग बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के लिए नहीं किया। बंगाल से कराची तक हिन्दुओं का खून बहता रहा, जिसका प्रतिरोध हिन्दुओं द्वारा कहीं-कहीं किया गया। सितम्बर में बनी अन्तरिम सरकार के साथ मुस्लिम लीग के सदस्यों द्वारा प्रारम्भ से ही विश्वासघात किया गया, लेकिन वे सरकार के साथ, जिसके वे अंग थे, जितने अधिक राजद्रोही और विश्वासघाती होते जाते थे, उनके प्रति गाँधी का मोह उतना ही बढ़ता चला जाता था। लार्ड वैवेल को त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि वे इस समस्या को हल नहीं कर सके और उनकी जगह लार्ड माउंटबेटन आये, जैसे नागनाथ की जगह साँपनाथ आये हों। कांग्रेस ने, जो अपनी देशभक्ति और समाजवाद का दम्भ किया करती थी, गुप्त रूप से बन्दूक की नोंक पर पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के टुकड़े कर दिये गये और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक-तिहाई भाग हमारे लिए विदेशी भूमि हो गयी।
कांग्रेस में लार्ड माउंटबेटन को भारत का सबसे महान् वायसराय और गवर्नरजनरल बताया जाता है। सत्ता के हस्तांतरण की आधिकारिक तिथि 30 जून 1948 तय की गयी थी, परन्तु माउंटबेटन ने अपनी निर्दयतापूर्ण चीरफाड़ के बाद हमें 10 महीने पहले ही विभाजित भारत दे दिया। गाँधी को अपने तीस वर्षों की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही प्राप्त हुआ और यही है जिसे कांग्रेस ‘स्वतंत्रता’ और ‘सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तांतरण’ कहती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का बुलबुला अन्ततः फूट गया और नेहरू तथा उनकी भीड़ की स्वीकृति के साथ ही एक धर्माधारित राज्य बना दिया गया। इसी को वे ‘बलिदानों द्वारा जीती गयी स्वतंत्रता’ कहते हैं। किसका बलिदान? जब कांग���रेस के शीर्ष नेताओं ने गाँधी की सहमति से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते हैं, तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया।
गाँधी ने अपने आमरण अनशन को तोड़ने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उनमें एक दिल्ली में हिन्दू शरणार्थियों द्वारा घेरी गयी मस्जिदों को खाली करने से सम्बंधित थी। परन्तु जब पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हिंसक आक्रमण किये गये, तब उन्होंने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला और पाकिस्तान सरकार अथवा सम्बंधित मुसलमानों को इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। गाँधी इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ने के लिए पाकिस्तान मुसलमानों पर कोई शर्त रखी, तो उनको शायद ही कोई मुसलमान ऐसा मिलेगा जो उनकी जिन्दगी की जरा भी चिन्ता करेगा, भले ही आमरण अनशन में उनके प्राण चले जायें। इसी कारण उन्होंने अनशन तोड़ने के लिए जानबूझकर मुस्लिमों पर कोई शर्त नहीं लगायी। वे अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते थे कि जिन्ना उनके अनशन से बिल्कुल भी विचलित या प्रभावित नहीं थे और मुस्लिम लीग गाँधी की आत्मा की आवाज का कोई मूल्य नहीं समझती।
गाँधी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जा रहा है। यदि ऐसा है तो वे अपने पिता जैसे कर्तव्य को निभाने में पूर्णतः असफल रहे, क्योंकि उन्होंने उसके विभाजन की स्वीकृति देकर उसके साथ विश्वासघात किया। मैं साहसपूर्वक कहता हूँ कि गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गये। उन्होंने स्वयं को ‘पाकिस्तान का पिता’ होना सिद्ध किया। उनकी अन्दर की आवाज, उनकी आत्मिक शक्ति, उनका अहिंसा का सिद्धान्त, जिनसे वे बने थे, सभी जिन्ना की लौह-इच्छा के सामने चरमरा गयी और वे शक्तिहीन सिद्ध हुए। संक्षेप में, मैंने स्वयं विचार किया और समझ गया कि यदि मैं गाँधी को मार दूँगा, तो मैं पूरी तरह नष्ट हो जाऊँगा, लोगों से मुझे केवल घृणा ही मिलेगी और मैं अपना सारा सम्मान खो दूँगा, जो कि मेरे लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन, इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि गाँधीजी के बिना भारत की राजनीति अधिक व्यावहारिक तथा प्रतिरोधक्षम होगी तथा सशस्त्र सेनाएँ भी अधिक बलशाली होंगी। निस्संदेह मेरा अपना भविष्य पूरी तरह खण्डहर हो जाएगा, लेकिन राष्ट्र पाकिस्तान के आक्रमणों से बच जाएगा। लोग भले ही मुझे मूर्ख या पागल कहेंगे, लेकिन राष्ट्र उस रास्ते पर बढ़ने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा, जिसको मैं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक समझता हूँ।
इस प्रश्न पर पूरी तरह विचार करने के बाद, मैंने इस सम्बंध में अन्तिम निर्णय कर लिया, लेकिन मैंने इस बारे में किसी से भी कोई बात नहीं की। मैंने अपने दोनो हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर गाँधीजी के ऊपर गोलियाँ दाग दीं। मैं कहता हूँ कि मेरी गोलियाँ एक ऐसे व्यक्ति पर चलायी गयी थीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों हिन्दुओं को केवल बरबादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके अन्तर्गत उस अपराधी को सजा दिलायी जा सकती और इसीलिए मैंने वे घातक गोलियाँ चलायीं। मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मैं कहता हूँ कि मेरे मन में इस वर्तमान सरकार के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिसकी नीतियाँ अन्याय की हद तक मुसलमानों के प्रति अनुकूल हैं। लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी स्पष्ट अनुभव करता हूँ कि ये नीतियाँ पूरी तरह गाँधीजी की उपस्थिति के कारण बनी थीं।
मैं बहुत खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश और कार्य कई बार एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं, जब इधर-उधर वे कहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, क्योंकि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पाकिस्तान के पंथ��धारित देश की स्थापना में नेहरू ने प्रमुख भूमिका निभायी थी और उनका कार्य गाँधीजी द्वारा लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने की नीति द्वारा सरल बन गया था। मैंने जो भी किया है उसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के सामने खड़ा हूँ और निश्चय जी न्यायाधीश ऐसा आदेश पारित करेंगे, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं चाहता और न मैं यह चाहता हूँ कि कोई अन्य मेरे लिए किसी से कोई दया-याचना करे। अपने कार्य के नैतिक पक्ष पर मेरा विश्वास सभी ओर से की गयी मेरी आलोचनाओं से किंचित भी विचलित नहीं हुआ है। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तौलकर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे। जय हिन्द।
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